तब से यह परंपरा बन गयी है और बाबा गंगानाथ मंदिर पर जोडि़यों के जुलूस का स्वागत होता है। मंदिर के पुजारी पीला पटका अलम पर बांधते हैं। इस दौरान अज़ादार मंदिर में प्रसाद ग्रहण करते हैं। इसके बाद हिंदू भाई जुलूस में शामिल अराईश व रौशन चौकियों को कंधे पर रख कर जुलूस आगे बढ़ाते हैं।
Sunday, November 17, 2013
हर दिल में बसते हैं हुसैन!!!
तब से यह परंपरा बन गयी है और बाबा गंगानाथ मंदिर पर जोडि़यों के जुलूस का स्वागत होता है। मंदिर के पुजारी पीला पटका अलम पर बांधते हैं। इस दौरान अज़ादार मंदिर में प्रसाद ग्रहण करते हैं। इसके बाद हिंदू भाई जुलूस में शामिल अराईश व रौशन चौकियों को कंधे पर रख कर जुलूस आगे बढ़ाते हैं।
Thursday, February 11, 2010
ये कैसी पत्रकारिता
पत्रकार रहते पत्रकारिता पर लिखना काफी मुसीबत भरा काम है। ये ठीक वैसा ही है जैसे तालाब में रहकर मगरमच्छ को चुटकी काट लेना। फिर भी आज मन नहीं मान रहा। लखनऊ के हमारे एक पत्रकार बंधू हैं जिनसे जुडी घटना का ज़िक्र अपने ब्लॉग पर ना कर पाऊं तो आत्मग्लानी मुझे परेशां करती रहेगी।
लखनऊ का एक प्रतिष्ठित हिदी/उर्दू दैनिक है जिस से एक बड़े धर्म गुरु का नाम भी जुड़ाहै। मेरे एक मित्र शायद इसी झांसे में आकर एक न्यूज़ चैनल की अपनी अछि खासी नौख्री को अलविदा कहकर चले गए।हालाँकि आम परजीवी पत्रकार की श्रेणी में ये बंधू कभी नहीं रहे और इसकी वजह शायद इनकी अछि पारिवारिक प्रष्ठभूमि भी है। इसीलिए आत्मसम्मान, शोच्नियता और मर्यादा जैसे विषयों पर ठीक ठाक बोल भी लेते हैं। aisi ही कुछ और वजह थीं जो उन्हें इस अखबार की और खींच कर ले गयीं। मगर वहां जाकर उनका भात्रम टूट गया।
उनके समाचार संपादक ने पहले ही दिन उनसे शराब की बोतल मांग ली। अगले दिन से पार्टी और लाइफ स्टाइल से जुडी ख़बरों पर संपादक महोदय खुद जाते और उनकी नोटिंग पर मेरे मित्र समाचार लिखा करते। बात आगे बढ़ी तो मेरे मित्र को शबाब का प्रबंध करने को कहा गया। मित्र उखड गए और जा पहुंचे प्रबंधक के पास। मगर ये क्या? यहाँ तो पासा ही पलट गया। प्रबंधक ने उल्टा हड़का दिया और आगे से शिकायत न करने की चेतावनी भी दे दी। कुछ दिन अपमान सह कर मित्र ने अख़बार को अलविदा कह दिया।
आजकल नया काम तलाश रहे हैं। ये एक छोटी सी बानगी भर है। देश को दिशा देने की ज़िम्मेदारी जिन लोगो पर है वो लोग दिशा हीन हैं। ऐसा नहीं की इस हमाम में सब नंगे हैं। अछे लोग कम नहीं और आदर्शवादिता का भी अंत नहीं हुआ है मगर बहुलता ऐसे ही लोगो की है। दलों की एक पूरी पीढ़ी पत्रकारिता की और खिंची चली आती है। नेतागिरी के पिटे हुए, वकालत में लूटे हुए , और भूमाफियागिरी के भगोड़े सबको यहाँ पनाह है। एक पूरा तंत्र है जो पनप रहा है। ज़रुरत है अच्छे लोगों की जो इस गौरवशाली पेशे का चीरहरण होने से रोक सकें.
Tuesday, February 2, 2010
गंगा के लिए एक नयी पहल
Wednesday, November 4, 2009
गंगा को मैला किस ने किया ?
राजा भागीरथ अपने पूर्वजों को श्राप से मुक्ति दिलाने के लिए अथक परिश्रम कर गंगा को धरती पर लाये थे। उनके गणों को तो मुक्ति मिल गई मगर गंगा धरती पर आकर मैली हो गई। आज गंगा को प्रदूषण के श्राप से मुक्ति दिलाने के लिए कोई भागीरथ नही मिल रहा। यह कोई एक कहानी नही है बल्कि मानव इतिहास रहा है की मतलब निकल जाने के बाद इंसान हर किसी के साथ ऐसा ही बर्ताव करता है। या यूँ कहिये की मानव मन इस्तेमाल कर फ़ेंक देने की कला में महारत हासिल कर चुका है।
गंगा को मैला किस ने किया? यह लाख रूपये का सवाल है, जिस का जवाब सब जानते हैं मगर बोलना कोई नही चाहता। मै भी खामोश रह सकता हूँ मगर खामोशी मेरी फितरत में नही है।
Sunday, October 11, 2009
आओ लोहिया जी के लिए राजनीती राजनीती खेलें!!!
लोहिया जी की पुण्य तिथि है। आओ चलो राजनीती राजनीती खेलते हैं। इस से बेहतर श्रधांजलि हम उन्हें दे भी नही सकते। अब हमारे ज़माने में सिद्धांत, राजनैतिक मूल्य और राजनैतिक सोच जैसी चीज़ें तो बची नही हैं। ना ही हमारे पास लोहिया जैसी दृढ इच्छा शक्ति है और ना ही बुरे से लड़ने का साहस। तो फिर राजनीती राजनीती खेलने के सिवा हमारे पास बचा ही क्या है।
जाओ एक फोटो ले आओ। हाँ, एक दो चार आने की माला भी ले आना। बगैर माला तस्वीर ठीक नही रहेगी। मगर नही ठहरो! ऐसे तो पुण्य तिथि सूनी सूनी लगेगी। हमारे परण आदरणीय, समाजवादी उद्धारक एवं आधुनिक युग के परम समाजवादी चिन्तक, श्री श्री अमर सिंह जी महाराज इस सादगी से नाराज़ हो सकते हैं। भला ये भी कोई समाजवाद हुआ? उनका विचार है कि समाजवाद को पूंजीवाद के ख़िलाफ़ उठ खड़ा होना चाहिए। इसके लिए समाजवादी पाँच सितारा होटलों पर कब्जा कर लें। पूंजीवादियों से बेहतर रहन सहन कर लें।
ऐसे उत्तम विचार हो तभी समाजवाद तरक्की कर सकता है। बात में दम है। तभी तो लोहिया जी के परम शिष्य मुलायम जी भी उनसे सहमत हैं। यकीन ना आए तो पता कर लो जनेश्वर जी से। शायद ला मरिडियन में दिया अमर भय्या का भोज याद हो। उन्होंने मुलायम जी को उस अवसर बार समाजवाद की अचानक हुई तरक्की का ग़लती से बखान कर दिया था और दांत भी खाई। भला चांदी के पलते चम्मच पर सिर्फ़ पूंजीवादी क्यों काबिज़ रहे? समाजवाद को पत्तल और पट्टी के भोज से आगे जाना ही होगा। अकेले इंडिया ही शाईन क्यों करे, समाजवादी भी साथ आने ही चाहियें?
हाँ लोहिया जी भी होते तो बहुत खुश होते। उनके सिद्धांत रहे न रहे मगर समाजवादी वाकई तरक्की पर हैं । अब समजावाद कहीं कराहता है तो कराहता रहे। फिर भी जाने क्यों मन उदास है। क्यों लोहिया जी इस खुशी में हमारे साथ शरीक नही हैं? क्यों नही देखते कि अब राजनीति में शौर्य और पराक्रम कि ज़रूरत नही रही। समाजवादी, पूंजीवादियों को उन्ही के अस्त्र से जवाब दे रहे हैं। समाजवादिओं कि क्रय शक्ति भी अब कम नही रही। कितना खुश होते वो देखकर कि अब राजनीति में आने के लिए सड़कों का संघर्ष ज़रूरी नही रह गया है। अब चिंतन नही करना पड़ता और ना ही मूल्यों पर टिकने की आवश्यकता रह गई है।
अब सब कुछ इतना आसान हो गया है। तभी तो मै कहता हूँ ,आओ राजनीती, राजनीती खेलते हैं। देश और इंसानों से खेलने के बाद सब से ज़्यादा लोकप्रिय अब यही तो खेल रह गया है।