Friday, September 18, 2009

गंगा की गोद में .


आज पित्र विसर्जन अमावस्या थी सो मैंने सोचा क्यों ना मै भी गंगा स्नान कर ही आऊं। सौभाग्य से गंगा मेरे घर से महज़ छै: किलोमीटर की दूरी पर है बहती है। हालाँकि 'बहती' शब्द का इस्तेमाल पर कुछ लोग अतिशयोक्ति कहकर आपत्ति लगा सकते हैं फ़िर भी गंगा तो बहती ही है।
कुछ साल पहले तक तो तेज़ रफ़्तार से बहती थी गंगा बस अब रफ़्तार धीमी हो गई है। एक मरणासन्न बुधिया से इस से ज्यादा रफ़्तार की उम्मीद रखना बेईमानी है। मेरे यहाँ तो फ़िर भी बहती है आगे जाकर तो कहते हैं के रेंगती भी नही। जाने भी दो फिलहाल गंगा की रफ़्तार चर्चा का केन्द्र बिन्दु नही है। चर्चा तो याहन जुटे श्रद्धालु हैं। देख कर खुशी हुई कि लोग अपने मृत पूर्वजों को आज भी याद करने का समय निकाल लेते हैं। ऐसे समय में जब जीवित माता पिता घर के किसी कोने में पड़े कराह रहे हों वहां धार्मिक अनुष्ठान के चलते ही सही पूर्वजों को याद कर लेना अपने आप में उल्लेखनीय है।
इस के पीछे दो कारण हो सकते हैं। पहला तो धार्मिक कर्मकांड के चलते मजबूरी या अपने भविष्य को लेकर डर। इसका आभास हमारे पूर्वजों को शायद हो गया था। वो आने वाली पीढीयों के अपने बुजुर्गों के लिए घटते आदर से वाकिफ थे, शायद इसी लिए इस तरह कि वयवस्था कि गई होगी।
मगर इस सब के बीच आज कव्वे कि किस्मत से भी कुछ जलन सी महसूस की। अपने पूर्वजों की तृप्ति की आस में कई लोगों को इस बेचारे जीव की सेवा करते देखा तो मन भर आया। इस सेवा कार्य में बहुत से ऐसे लोग भी रहे होंगे जिन्होंने जीवित रहते कभी अपने बुजुर्गों को चाय के लिए भी पूछा हो। इनके तर्पण को इनके पित्तर किस मन से स्वीकार कर रहे होंगे, सोचने का विषय है।
अब जाने भी दो। हमेशा उल्टा सोचना भी ठीक नही। वैसे मै आपको बता दूँ, जिस तिगरी तट पर गढ़मुक्तेश्वर के नज़दीक मुझे जाने का सौभाग्य मिला था इसी स्थान पर राजा सगर के गणों को श्राप से मुक्ति भी मिली थी, जिसके लिए गहन तपस्या कर सगर भागीरथी को धरती पर ले आए थे। इसी जगह पर पांडवों ने महाभारत के युध्ध के उपरांत अपने परिजनों का पिंड दान किया था। इतना ही नही पानीपत के युद्ध में अहमद शाह अब्दाली के हाथों परास्त होकर लौटी मराठा सेना ने भी अपने मृत सेनानियों का अस्थि विसर्जन यहीं किया था। इस के साथ ही उनकी आत्मा की शान्ति के लिए मराठों ने यहाँ दीपदान की प्रथ भी शुरू की।
इतना ही नही इसी तट के दूसरी ओर गंगा माता मन्दिर का निर्माण कार्य, सुलतान गयासुद्दीन मुहम्मद बलबन ने करवाया। इस तट पर कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर एक विशाल मेला भी लगता है जिसका पहली बार सरकारी प्रबंध मुग़ल सुलतान बाबर ने करवाया था।

Wednesday, September 16, 2009

आरुशी का कातिल कौन?


आरुशी तलवार हत्याकांड में एक बार फिर सी०बी० आई० के हाथ जांच में निराशा ही लगती दिख रही है। जिस मोबाइल फ़ोन के दम पर खबरिया चैनल जाँच एजेंसियों के हाथ कातिल तक पहुँचने का दावा कर रहे थे वो किसी काम का भी नही निकला। एक तो सोलह महीने बाद किसी फ़ोन से डाटा रिट्रीव कर पाना लगभग नामुनकिन है दूसरे इस फ़ोन में जा एजेंसियों के हाथ असली डाटा कार्ड लगा ही नही। बल्कि जिस रामफूल से ये मोबाइल बरामद किए जाने का दावा किया गया था उस के मुताबिक उसके पास जब यह फ़ोन आया तो उसमे कोई कार्ड लगा ही नही था॥ उस के मुताबिक जब यह फ़ोन उसकी बहन को पाया तो इस फ़ोन में ना सिम कार्ड था और ना ही मेमोरी कार्ड। वो मोबाइल चलाना जानती ही नही सो उस ने बेकार समझ कर ये फ़ोन उसे दिया था, इस उम्मीद में की शायद बाही के किसी काम का हो। फिलहाल तो एक बार फिर इस बहुचर्चित केस की गुत्थी उलझती नज़र आ रही है।
मगर इस समय का सब से बड़ा सवाल ये है की इस केस की गुत्थी उलझती जा रही है या उलझाई जा रही है ? इस सवाल का जवाब पाना आसान नही मगर हालत का इशारा तो यही है के कोई कोई न कोई इस मामले को उलझाए रखना चाहता है। डाक्टर तलवार खबरिया चैनलों पर दावा कर रहे हैं के उनकी बेटी का क़त्ल उनके नौकरों ने ही किया है। हो सकता है उनका दावा सच हो मगर जिस तरह इस हाई प्रोफाइल मामले में लगातार सबूतों से छेड़खानी और पुलिस का दोहरा चेहरा सामने आ रहा है उसे देखकर तो उनके दावे पर यकीन मुश्किल हो जाता है। फ़िर सवाल ये भी है के उनके नौकर हेमराज का कातिल कौन है और उसका आरुशी के क़त्ल से क्या वास्ता?
इस बात पर यकीन कर पाना मुश्किल है के लो प्रोफाइल नौकर जांच एजेंसियों को इतने दिन तक गुमराह कर सकते हैं। अभी तक आरोपी बनाए गए लोगों में ख़ुद डाक्टर तलवार को छोड़ कर किसी और की इतनी हैसियत नही है की वो किसी तरह की जोड़ तोड़ कर सबूतों की अदला बदली करा दे। ख़ास कर जैसे फोरेंसिक जांच के लिए भेजे गए आरूषी के D.N.A सैम्पल के साथ छेड़खानी की बात सामने आई है उसे कोई लो प्रोफाइल आदमी अंजाम दे ही नही सकता।
जिस तरह आम आदमी से पुलिस का अदना सा सिपाही पेश आता उसे देखकर तो कोई यकीन कर ही नही सकता के दो चार मामूली नौकर मिलकर बार बार जांच का रुख बदल सकते हैं। जिस रामफूल से मोबाइल मिला है वो भी कोई तुर्रम खान नही है। उसकी बहन घरो में बर्तन साफ़ करती है तो वो ख़ुद एक चपरासी है।
फिलहाल जो हालत हैं उनका इशारा है के जाच के लिए हाथ पैर मार रही एजेंसियां तब तक कामयाब नही होंगी जब तक छेड़खानी करने वालो के साथ सख्ती से पेश नही आती।
इतना भी तय है के आरूषी के क़त्ल का सुराग नॉएडा के जलवायु विहार की उसी चार दिवारी में क़ैद है जिसमे उस ने आखिरी साँस ली। उस के बाहर खुक्च ढूंढ़ना ख़ुद पुलिस और जांच एजेंसियों पर सवालिया निशाँ लगाता रहेगा।

Saturday, September 12, 2009

बारिश पर सट्टा लगाओगे क्या?


चार दिन की लगातार बारिश ने लोगों को परेशान कर दिया। और लोगों को भी क्या, सच कहिये तो खुदा की ख़ुद की परेशानी बढ़ा दी। हर तरफ़ से एक ही आवाज़, 'भगवान् बस भी करो'। अल्लाह भी परेशान, ये आदमी है या कुछ और? अरे कोई जुबां भी है इसकी? अभी कल तक तो इन सबकी साझा आवाज़ आ रही थी बारिश कर दो, और अब? कितना करह रहे थे सब। कुछ भी कर दो इनको सुकून ही नही मिलता।
अभी दिन ही कितने हुए हैं। हर तरफ़ से त्राहि माम, त्राहि माम। हर एक का यही उलाहना, खुदा क्या अब मार कर ही दम लेगा। उलाहना आज भी वही है, बस वजह बदल गई है। कल जो आवाजे बुलंद होकर बारिश के लिए दुआ कर रहे थे वही इसके थमने को बेकरार हैं। अरे अभी हुई ही कितना है। मौसम विभाग भी अभी इसे औसत से २६ प्रतिशत कम तक मान रहा है। बंद कर दूँ तो फिर रोते कराहते आयेंगे, "या अल्लाह बरसा दो, मेघ दो पानी दो..."।
आम आदमी की कराहट तो समझ आती है, वो भी तो दिल दिल में दुआ कर रहे हैं जिन्हें कुदरत के होने में ही शक है। और वो भी जो हकीकत में शैतान के पथ प्रदर्शक की भूमिका निभा रहे हैं खुदा से ज़्यादा ही मन्नतें कर रहे हैं। इनका दर्द ज़्यादा बारिश से जनजीवन की अस्तव्यस्तता नही बल्कि कुछ और वजह से है। इन्हे इस बात से मतलब नही के बरसात में घर टपक रहा है, या फिर गिर भी सकता है। इनके महल में तो बरसात की सीलन भी नही पहुँचती। फिर ये डर किस चीज़ का?
अब आप भी जानने को ज़्यादा जिज्ञासु न हों मई बता ही देता हूँ। ये देखने में हम आप जैसे ही हैं मगर इनके जीवन में जो उतार चढाव आते हैं उनके सरोकार ज़रा जुदा हैं। इन्हे फ़िक्र है है के बारिश अगर यूँ ही बरसती रही तो सूखा कैसे पड़ेगा? अरे ये क्या ये तो चावल की फसल को बहुत ज़्यादा फायदा हो गया। इनका दिल इस बात से भी डूब रहा है की इस बारिश से दाल की फसल अच्छी हो जाएगी।
जी हाँ आप ठीक समझ रहे हैं। ये सटोरियों की दास्ताँ सुनाई जा रही है। लोगो के ग़म से इन्हे खुशी हासिल होती है। इन्हे इस बात से कोई सरोकार नही की चावल अगर दो रूपये किलो महंगा होगा तो कई परिवारों में लोगों को आधे पेट खाकर ही सोना होगा। दाल अगर नब्बे रूपये किलो बिक रही है तो बिके । इन्हे क्या? इसी में तो इनकी खुशी है। इस से देश की दो तिहाई आबादी का बजट बिगडेगा मगर इनका सेंसेक्स उपर उठता ही जाएगा। इन्होने जो माल अपने गोदामों में जमा कर रखा है उसे दीमक भी लग जाए तो कोई फ़िक्र नही। एम् सी एक्स पर लगाया हुआ सट्टा उसकी ना सिर्फ़ भरपाई कर देगा बल्कि इन्हे बाज़ार की बुलंदी तक ले जाएगा।
जब इतने स्वार्थ जुड़े हों तो फिर फ़िक्र लाजिमी है। सो अब पेड दुआओं का दौर शुरू हो गया है। बारिश रोकने के लिए भगवन को रिश्वत आफ़र की का रही है। हवन वगैरा का सहारा लिया जा रहा है। पंडे पुरोहित भरोसा दिला रहे हैं, करोडो लोग भूके मरें तो मरें, किसान बरबाद हो तो हों, कोई क़र्ज़ में डूब कर आत्महत्या करे तो करे। यजमान आप फ़िक्र न करें। आप बस खर्च करते जाइए। भगवान् को हम रोक लेंगे। अगर बारिश आपका कारोबार डूबा रही तो हमारा क्या होगा। फिर आम आदमी की ज़िन्दगी में भी तो बरसात कीचड़ घोल रही है। भले हो वो नगर निगम के सौजन्य से हो। इसी बहाने आम आदमी के दर्द भी तो आप बाँट ही लेते हैं।
क्या कहा? शैतान और रहमान हमेशा साथ रहते हैं? शायद सटोरिया ठीक ही कह रहा है।

Thursday, September 10, 2009

दिल्ली में दिल नही लगता...


उस रोज़ जाने मेरा वक्त ही ख़राब आया था या फिर नियति को यही मंज़ूर था, कि मैं दिल्ली चला गया। दिल्ली यूँ तो मुझ से कभी दूर नही रही मगर ना जाने क्यों दिल्ली जाकर हमेशा ही मेरा दिल उचाट हो जाता है। इस में दिल्ली का कोई दोष नही। दोष तो मेरी आदतों का है जो मेरी आराम तलबी और मेरे निकम्मेपन ने बिगाड़ दी हैं।
दिल्ली कि रफ़्तार अब मुंबई को मात देती लगती है। यहाँ के लोग हालाँकि अभी मुंबई जितना स्वकेंद्रित, स्वार्थी और अपने आप में और अपने लिए जीने वाले नही हुए हैं। मगर फिर भी जाने क्यों लगता है कि हमारी दिल्ली अब दिल्ली नही रही और ना ही दिल्लीवासियों का पहले जैसा बड़ा दिल। धूल, धूप और उलझन के सिवा जो एक और चीज़ मुझे यहाँ कचोटती है वो है दिल्ली में पीने का पानी। अब क्या बताऊँ उस रोज़ कि भयंकर गर्मी ने मुझे बेहाल कर दिया। मै ग्यारह लीटर पानी पी गया मगर इस सब में मेरी जेब से खाने के पैसे भी ख़त्म हो गए। दिल्ली मेरा गाँव नही है जहाँ भले ही पनघट या तालाब ख़त्म हो गए हों पर पानी पीने के दाम नही चुकाने होते।
मेरे पास पैसे थे मैंने दाम चुका दिया । इतना ही नही जब पानी हाथ नही लगा तो कोल्ड ड्रिंक भी पी लिया । मगर दिल्ली में ऐसे कितने लोग होंगे जो रोजाना डेढ़ सौ रूपये प्रतिदिन का पानी पीने का सामर्थ्य रखते होंगे? ज़ाहिर है दिल्ली कि आधी से ज़्यादा आबादी मिनरल वाटर कि एक बोतल का दाम चुकाने की हालत में नही है। दिल्ली सिर्फ़ आलिशान अट्टालिकाओं में वास करने वाले मुट्ठी भर लोगो की नही है। यह लोगो की भी नही है जो फुटपाथ पर ज़िन्दगी गुज़र देते हैं। दिल्ली सिर्फ़ झुग्गी वालो की भी नही है।यह उन लोगों का शहर भी नही है जो रोजाना लाखों की तादात में यहाँ काम की तलाश में आते हैं और शाम होते होते लौट जाते हैं। दिल्ली इन सब की है , बल्कि हम सब की है।
मगर जब दिल्ली की आधी से ज़्यादा आबादी का दर्द समझने की कोशिश करता हूँ तो लगता है कि दिल्ली मेरी नही हो सकती। मुझे काम चाहिए और दिल्ली में वो है भी मगर इन हालत में गुज़र कैसे होगा नही जानता। मजबूर दिल्ली जाने को उकसाती है तो दिल यहाँ कि मुसीबतों का उलाहना देता है। हौंसला इन सब से लड़ने की बात करता है मगर दिमाग कहता है, तुम कोई क्रांतिकारी हो क्या? जब नही तो बस जैसे कट रही है गुजार लो। अपने दर्द क्या कम हैं जो नई नई आफतों से लड़ने के ख्वाब देखते हो। मगर फिर भी दिल्ली तो दिल्ली ही है।

Tuesday, September 8, 2009

बादल हुए बेईमान सजनी...



बरसात के मायने ही बदल गए लगते हैं। अब ना वो पहले जैसी झमाझम बारिश होती है और ना ही पहले जैसे कजरारे बादल आसमान पर नज़र आते हैं। याद आते हैं वो दिन जब पानी में कागज़ की कश्तियाँ मन की हिलोरों सी डोलती हुई दूर निकल जाती थीं। जगह जगह भरे हुए पानी में घर वालों की सख्ती के बावजूद धमाचौकडी वाला वो बचपन अब वापस नही आने वाला। और जो एक चीज़ वापस आती नही लगती है बचपन वाली झमाझम बरसात।

लोग कह रहे हैं बादल बेईमान हो गए हैं। कहीं फट कर बरसाने को तैयार हैं तो कहीं मुह छिपा कर निकल जाते हैं। हालाँकि बरसात की स्थिति में सुधार का दावा मौसम और कृषि विभाग कर रहा है और बारिश भयंकर सूखे की आशंकाओं को भी खारिज करती दिख रही मगर इस साल के हाल हमारे लए किसी चेतावनी से कम नही।

ऐसा नही है के बारिश बेईमान ही गई। दरअसल पिछले कुछ सालों में मौसम का चक्र ही बिगड़ गया है। रेगिस्तान पर बादल बरसने की खबरें आती हैं तो हरे मैदानों पर झुलसाने वाली गर्मी पड़ती है। गर्मी अब जल्दी आती है और देर से जाती है। सर्दियाँ एक बार आ जाती हैं तो लगते है वापस जाएंगी ही नही। यही हाल बरसात का भी है। बरसात बेईमान नही हुई है बल्कि थोड़ा देर से आती है। फिर बरसात ही क्यों ? पूरा मौसम चक्र ही दो महीना लेट हो गया है।
इस सब का जिम्मेदार कौन है? ज़ाहिर है हम ही लोग। मौसम चक्र बिगाड़ने में जितना हाथ ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति मान्य श्री मानव जी का है किसी और का नही। एक क़व्वाली के बोल याद आते हैं जिस में कव्वाल ईश्वर की तरफ़ से कह रहा है " मै बना कर तुझे ख़ुद परेशान हूँ... तुझ को दुनिया में लाना ग़ज़ब हो गया.." हालाँकि शायर ने ये सब किसी औरत के लिए कहा है मगर प्रकृति से छेड़छाड़ की बात आती है तो ये शब्द पूरी मानवजाति पर ही लागू होते हैं। हम ने पहाडो को तोड़ कर रास्ते बना दिए। आसमान पहाड़ कर चाँद पर कब्जा कर लिया। सागरों का सीना चीर कर वहां भी विजय पा ली। मगर अपनी जीत के गुमान में हम भूल गए कि हम इस ज़ंग में कुछ हासिल कर रहे हैं तो कुछ खो भी रहे हैं। इस तथा कथित माविया विकास का रास्ता वन वे ट्रैफिक कि तरह ही है। यहाँ वापसी कि कोई गुंजाइश नही रही। ईश्वर ने हमें बनाया था तो उस का दिल भी बहुत बड़ा है। प्रकृति ने भी जहाँ तक हुआ हमारी कुचेष्ठाओ को काफ़ी हद तक बर्दाश्त किया। मगर अब तो हद ही हो गई है।
बात सिर्फ़ तथाकथित मानवीय विकास की ही नही रह गई है। इस अंधी दौड़ में हम काफी आगे निकल गए हैं। मानव का लगातर विजय ने उसे दम्भ से चूर कर दिया है। अपने मग़रूर मिजाज के चलते आदमी प्रकृति के चेतावनिओं को लगातार अनदेखा करता चला आ रहा है। मगर ये ज़्यादा दिन चलने वाला नही है।
हम लगातार प्रकृति का इम्तेहान ले रहे हैं और दंभ में चूर उसे लगातर कुचलने पर आमादा हैं। जीत के नशे में हम भूल गए हैं कि कुदरत भी हमारा इम्तेहान ले सकती है।ओंर जिस दिन ऐसा होगा उस दिन हमारे पास पछताने का भी वक्त नही होगा।

Friday, September 4, 2009

बेरंग पान, बेनूर होंट


अगर आप पान खाने के शौकीन हैं तो आपकी सेहत के साथ साथ जेब के लिए भी बुरी ख़बर है। मौसम की मार और बीमारी के चलते इस बार पान की फसल को काफ़ी नुकसान हुआ है। इसका सीधा असर बाज़ार में पान की कीमतों पर पड़ा है। आम तौर पर दो से तीन रूपये में बिकने वाले सादे पान के लिए अब आपको पॉँच से लेकर सात रूपये तक चुकाने पड़ सकते हैं।वरना तो बाज़ार में सौ से पाँच सौ रूपये तक बिकने वाले स्पेशल पान भी हैं, मगर उनका आम आदमी से कुछ ख़ास लेना देना नही है।
अब शायद ही कोई आप से नुक्कड़ तक चलकर पान खाने का इसरार करे। नुक्कड़ की रौनक कुछ धुंधली सी पड़ गई है और पान की दुकानों पर मरघट का सा सन्नत पसरा है। इसकी वजह पान की कीमतों में हुई भारी वृद्धि है। ज़ाहिर है आदमी बकरी की तरह खाली पत्तियां चबाकर तो खुश हो नही सकता। पान में और भी कई सारी चीज़ें डाली जाती हैं जो इसे ना सिर्फ़ लजीज बनाती हैं बल्कि कुछ मामलो में तो आयुर्वेदिक औषधि तक की श्रेणी में ला देती हैं।
पुराने समय में तो पान खाने को ना सिर्फ़ शान ओ शौक़त से जोड़ कर देखा जाता था बल्कि पान को एक लज़ीज़ व्यंजन की तरह परोसा भी जाता था। आज भी पान के कद्रदानों की संख्या कम नही है। मगर यही हाल रहे तो शायद ही कोई गंगा किनारे का छोरा पान की शान में कसीदे पढ़कर ठुमके लगाये। माशूका के होंटो की सुर्खी और नवाबी मिजाज के लोगो की नजाकत और नफासत भी मंहगे पान की भेंट चढ़ जाने वाली है। अब तो बस उम्मीद और दुआ ही की जा सकती के पान के दाम घाट जायें।

दरअसल इस साल पूरा उत्तर भारत भयंकर सूखे की चपेट में है। बादल बरसे मगर इतनी देर से की कई फसलो ने तो दम ही तोड़ दिया। अब भला नाज़ुक और नफीस पान इतनी गर्मी कैसे बर्दाश्त कर पाता सो आधी से ज़्यादा फसल चौपट हो गई। रही सही कसर पान में लगी गिन्दार और दूसरी बिमारिओं ने पूरी कर दी। उधर पिछले कुछ समय में कत्थे और छाली के दामो में काफ़ी वृद्धि हुई है। सो पान का पत्ता आम आदमी के बस से बाहर की दौड़ लगा रहा है।
अब पान खाकर इतराने का वक्त शायद निकल गया है। तम्बाकू का विरोध करने वाले शायद इस से खुश हों मगर तम्बाकू के बिना भी पान काफ़ी बिकता है। पान के चाहने वाले इस सदमे से उब़र पाएंगे भी या नही, कहा नही जा सकता। फिलहाल तो हम इस मुसीबत की घड़ी में उन्हें सांत्वना ही दे सकते हैं।