Monday, June 15, 2009

विश्व विजेता की हार


भारत भर में धोनी की टीम का मर्सिया पढ़ा जा रहा है। २०-२० विश्व कप में भारत की असमय विदाई क्या हुई मनो हर तरफ शोक ही शोक। आखिर क्रिकेट भारत में किसी धर्म से तो कम नहीं। मगर चलो अच्छा ही है। कम से कम दूसरे खेलों से जुड़े लोगो के लिए तो ये तसल्ली की ही बात है।कम से कम उनका कुछ भला नहीं हो रहा तो क्रिकेट का दिवाला तो निकला । हो सकता है बुरे वक़्त में किसी की नज़र उन पर भी पड़ ही जाए।
धोनी के धुरंधर विश्व विजेता का अपना खिताब बचाने विलायत गए थे मगर धराशाई हो गए। ऐसा गिरे कि फिर दोबारा उठने का मौक़ा ही नहीं मिला। हार बुरी बात नहीं। खेल में किसी एक को तो हारना ही है। मगर yah हर टीम कि नहीं अंहकार की हार है। और यह हार है एक अभिमानी कप्तान की। लाख क्रिकेट एक टीम खेल है, मगर हार का जिम्मेदार हमेशा कप्तान ही होता ही। खासकर डूबे जहाज़ की बदहाली के लिए कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेता। इस दुर्दशा के लिए हमेशा ही नेत्रत्व को कोसा जाता है।
इस हर के पीछे अंतर्कलह भी है। धोनी और बी सी सी आई लाख एकजुटता के दावे करते रहे हों मगर कहीं न कहीं दाल में काला ज़रूर था। लोग कहते हैं इज्ज़त पैसा और शोहरत हर आदमी नहीं संभाल पाता । सफलता अपने साथ कई बुराइयाँ लती है। इसमें अंहकार और अधिनायकवाद सब से बुरे हैं। धोनी को समझना होगा कि इन सब से कैसे दूर रहा जाये। इस हार के बाद की आलोचना शायद उन्हें ज़मीन पर ले ही आये।
धोनी एक बात और भूल गए लगते हैं। इस देश में सफल आदमी अगर भगवान के सामान है तो विफल किसी घ्रणित प्राणी से कम नहीं। उन्हें शायद मालूम न हो मगर अपने साथी तथा महानतम क्रिकेटरों में से एक सचिन से ही पूछ लें। भारतीय क्रिकेट का भगवान् कहे जाने वाले इस खिलाडी की विफलता को भी क्रिकेट प्रेमी कभी नहीं पचा पाए। बुरे समय में उन्हें भी कम अपमानित नहीं किया गया फिर धोनी को तो उन तक पहुँचने में बहुत वक़्त लगेगा। इतने पर भी सचिन महान इस लिए हैं की वो अपनी आलोचना खामोशी से सुनते हैं, गलती से सबक लेते हैं और जवाब में जुबां नहीं बल्ला चलाते हैं। धोनी यहाँ मात खा जाते हैं और सफलतम कप्तानों में से एक होने के बावजूद कहीं निछले पायदान पर खड़े दिखाई देते हैं।
फिर धोनी शायद इतिहास से भी सबक नहीं लेना चाहते। सौरव गांगुली और राहुल द्रविड़ का हश्र तो उन्होंने खुद ही देखा है। इस से पहले भी भारतीय क्रिकेट का इतिहास रहा है की सफल रहने तक ही कप्तान सर आँखों पर बैठाया जाता है। एक बार वो अपने चरमोत्कर्ष को छू कर नीचे आया नहीं के जिल्लत की हर राह से गुजरने को मजबूर किया जाता है। धोनी को अगर पता न हो तो ज़रा अजहरुद्दीन, कपिल देव, श्रीकांत, गांगुली, सचिन और रवि शास्त्री से ही पूछ लें। ये लोग सौभाग्य से अपने अनुभव बाँटने को अभी हमारे बीच मौजूद हैं।
चलो जाने दो। क्रिकेट में आकिर रखा ही क्या है। याद करो चक दे इंडिया फिल्म का वों जिसमे शाहरुख़ हॉकी के बारे में कहते हैं के ये छक्कों का खेल नहीं है। मगर २०-२० क्रिकेट तो छक्को का ही खेल है। धोनी भी छक्को के इस खेल के आवरण से बाहर आयें। एक आशियाँ उजड़ गया तो क्या ग़म है, तेरे आगे आसमान और भी हैं... अभी मर्दों वाली क्रिकेट बाकी है। तय्यारी करो और जूझ पडो।
मगर एक बात का ख्याल रहे। जो हार से सबक नहीं लेता कभी नहीं उबर पाता।जीत किसी एक की नहीं होती मगर हार हमेशा नेत्रत्व की ही होती है। विजेता बनना है तो पहले एकजुट होना पड़ेगा।

Sunday, June 14, 2009

एक रोती कराहती नदी का अफसाना


गंगा नदी से मात्र दस किलोमीटर दूर, राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या २४ पर ओद्योगिक नगरी के रूप में विकसित होता एक छोटा सा कस्बा है गजरौला। यहाँ के लोग अक्सर दावा करते हैं कि मुंबई के बाद शायद गजरौला ही है जो कभी नही सोता। आप रात को किसी भी समय यहाँ उतर जाइये, जनजीवन अपनी रफ्तार से ही दौड़ता हुआ मिलेगा।
गंगा के अलावा आस पास से दो तीन नदियाँ और भी गुज़रती हैं। अब नदिया भी क्या , यूँ कहिये कि दो तीन नाले भी गुज़रता हैं। वैसे जो हालात हैं उन्हें देखते हुए तो यही लगता है कि वो दिन दूर नही जब पवित्र गंगा मय्या के विषय में भी यही कहा जाएगा।
इन दो तीन नदियों में से एक छोटी सी बगद नदी भी है। एक ज़माने में ये भी काफी पूजनीय थी। लोग यहाँ भी स्नान कर लिया करते थे, मगर अब नही करते। हालाँकि कर सकते हैं। यहाँ का पानी गंगा से थोड़ा बहुत ही ज़्यादा ज़हरीला होगा। थोड़ा सा काला ज़रूर है मगर है अभी पानी ही। हो भी क्यों ना? अब नदी ही तो है, इन्सान तो नही जो आँख का पानी भी मर जाए, सो बेचारी आंसू बहाती रहती है। अब यही आंसू उस में आक़र गिर रहे ओद्योगिक अपशिष्ट के साथ मिलकर आस पास कि फसल को भी जला देते हैं तो इसमे बेचारी बगद का क्या दोष? उसे तो हर हाल में अपनी बेबसी पर आंसू बहाना ही है।
हम हिन्दुस्तानी पूरी दुनिया पर छा गए हैं। विकास कि रफ्तार में पूरी दुनिया को पीछे छोडे जाते है। मगर इस के साथ साथ अपनी जड़ो से भी हम कट गए लगते हैं। कुछ डूब रहा है तो डूबने दो, कुछ मिट रहा है तो मिटने दो, हमें क्या? अरस्तु ने भी क्या कुछ ग़लत कहा था, मध्यम वर्ग के बारे में कि यह दुनिया कि सबसे ज़्यादा भावहीन जमात होती है। मकियावेली ने भी कुछ कुछ ऐसे ही विचार अपने दर्शन में पेश किए। कुल मिलकर हमारे देश में मध्यम वर्ग कि भरमार है। ग़रीब के पास साँस लेने का अधिकार नही और इस वर्ग के पास साँस लेने की फुर्सत नही। फिर बगद जैसी दम तोड़ती नदी के बारे कोई क्या सोचे। कुछ दिन बाद यह काला नाला अपनी मौत आप मर जाएगा।
चलो अच्छा ही होगा। गजरौला से लेकर बदायूं तक के किसानो कि फसल, पशु और ख़ुद उनकी ज़िन्दगी तो दम नही तोडेंगे। वरना तो आज बगद इन दो जिलो ( ज्योति बा फुले नगर और बदायूं) के लोगो के लिए मौत का ही नाम है। इस रोती कराहती बुढिया का बोझ इसके बच्चों से नही उठाया जाता। ये अब मर ही जाए तो बेहतर।
मगर इस सब के बाद याद रखना अगली बारी उस बुढिया कि है जिसे हम गंगा मय्या के नाम से जानते हैं।

Saturday, June 13, 2009

पानीपत का तीसरा , चौथा और पांचवा युद्घ : अर्थार्थ भाजपा की कहानी


भाजपा में घमासान मची है। हारी हुई सेना के सेनापति एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे हैं। दल साफ़ तौर पर दोगुटों में बटा नज़र आ रहा है। एक दल जड़ो की और वापसी का नारा दे रहा है तो दूसरे को विचारधारा में ही खोटनज़र आ रहा है। कुछ सेनानी मात्र संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संग के सर हार का ठीकरा फोड़ रहे हैं तो कुछ तोसेनापति में ही कमजोरी नज़र आ रही है। बहरहाल दल अपनी एतिहासिक हाल के कारण तलाशते तलाशतेइतिहास दोहरा रहा है । ऐसा ही रहा तो वो दिन दूर नही की इस सेना के सेनापति अपनी सेना को एतिहासिकबनाते बनाते इतिहास के गर्त में धकेल ही देंगे। राजनीती में हार और जीत लगी ही रहती हैं मगर भाजपा के लिए इस बार मामला अलग ही था। दल ने इस बारन सिर्फ़ आम चुनाव में पूरी ताक़त झोंक दी थी बल्कि अगले चुनाव का भी बिगुल बजा दिया था। मगर जीत नमिलनी थी और न मिली। १००८ महागुरु, बाबा श्री लालू प्रसाद यादव जी की भविष्यवाणी सत्य साबित हुई। उन्होंने तो पहले ही कह दिया था की आडवानी जी की कुंडली में प्रधानमंत्री का योग ही नही है, मगर किसी नेउनकी बात नही मानी। ख़ुद मुरली मनोहर जोशी जी, जो अपने ज़माने में ज्योतिष शिक्षा के सबसे बड़े हिमायतीथे उनकी बात झुठलाते रहे। मगर न ज्योतिष झूठा था और न बाबा। हाँ इतना ज़रूर है की दूसरो का भविष्य बांचतेबांचते बाबा जी को ख़ुद अपनी सुध न रही और डूब गए। आम चुनाव भाजपा के लिए पानीपत के दूसरा युद्घ साबित हुए। पानीपत के बाद मराठ सती का जिस तरह क्षरण हुआ था उसी रास्ते पर भाजपा भी चल निकली है। आसार तो चुनाव में ही नज़र आ गए थे। दरअसल इसदल में सेना कम और सेनापति ज़्यादा थे, अंहकार में डूबा एक एक सेनापति क्षत्रु को नही अपने ही साथी की लुट्या डुबाने में व्यस्त था।लोह पुरूष के लोहे के कवच को उनके नायब ही चुराकर बेचने की जुगत में थे। अब प्यार तो होना हो था...माफ़ करना बंटाधार तो होना... । भाजपा का डूबना अब तै है क्योंकि अब न यहाँ विचार हैं और न विचार धारा। विचार बूढे और दकियानूसी होचुके हैं और विचारधारा आदिमयुगीन, विद्वंसक, और विनाशक। भारत जैसे उन्नतिशील, सहनशील औरविचारशील देश में इस सब का अब कुछ काम नही। भाजपा के सामने दो ही रास्ते हैं। पहला की वह अपना चोल हीनही आत्मा भी बदले। विनाश की नही विकास की बात करे।और सिर्फ़ बात ही नही करे, जिन राज्यों में सत्ता में हैवहां अमल में भी लाये। दूसरा रास्ता है की वो अपनी जड़ो की तरफ़ लौट जाए और इतिहास बन जाए। आखिर इतिहास ही तो ख़ुद को दोहराता है।

Tuesday, June 9, 2009

लालू जी को गुस्सा क्यों आता है ?


लालू जी नाराज़ हैं पर अपनी नाराजगी छिपा नही पाते। दिल में एक टीस सी है। लाख दबाना चाहते हैं मगर दर्द है की जुबां पर ही जाता है। अब जुम्मा जुम्मा चार दिन ही की तो बात है। ठाट से सत्ता के गलियारों में दनदनाते फिरते थे। उनकी रेल थी की बगैर सिग्नल दस जनपथ से लेकर रेस कोर्स , नार्थ एवेन्यू से साउथ एवेन्यू, यहाँ तक कि पटना से बडौदा हाउस तक क्या मजाल जो कोई रोक ले।
लोग प्यार से मैनेजमेंट गुरु तक कहने लगे थे। गुरुगिरी का खुमार इतना चढा कि रेल दफ्तरों तक के बाहर सुबह सुबह पहुँच जाते थे छड़ी लेकर। अब ये कहाँ कि तुक हुई जी? सरकारी बाबू हैं दस से पहले भी कैसे सकते हैं दफ्तर? ट्रेन का टाइम सीधा हुआ नही इन साठ साठ साल पुराने बिगडे नवाबों को कैसे सीधा कर सकते थे। भाई बनिए को मुनाफे से आगे सोचना ही नही चाहिए। जनता है उनकी तनख्वाह देने के लिए।
इस से भी दिल नही भर रहा था के लगे सब को डांटने डपटने। कभी किसी नेता को डपट दिया, कभी किसी कारिंदे को। अब पत्रकार आपके रेल मंत्रालय के कर्मचारी तो थे नही। सब को डांटने डपटने के फेर में , जाने अनजाने हर तरफ़ दुश्मन खड़े कर लिए। अब क्या पता कांग्रेस में कौन कौन जला भुना बैठा था ?
अब सत्ता कि बंदरबांट में आपकी हिस्सेदारी नकार दी गई, या कहिये कि जनता ने आपको पैदल करा दिया तो क्या हो सकता है। बुरे वक्त में ऊंट पर बैठे आदमी को कुत्ता काट कर भाग जाता है , आप तो अब अपने प्रिय वाहन भैसे पर भी नही हैं। अब संसद में आप कितना डांट डपट दीजिये आपकी हैसियत कोई किसी विदूषक से ज़्यादा मानने को तैयार शायद ही हो। आप संसद में बोलते हो तो सारा सदन हँसता है। आप सदन में कह रहे थे कि अपने स्वाभिमान से समझौता नही करूँगा, तब भी सदन हंस ही रहा था। मगर बातों में तो दम था। कोई माने मै तो मानूंगा।
मुझे तो आप से काफ़ी सहानुभूति है मगर मेरी हैसियत ही क्या है। एक अदना सा पत्रकार सलाह से ज़्यादा कुछ दे ही नही सकता। संपादक किसी लायक बन्ने ही नही देता और अच्छे वक्त में आप जैसे लोग कभी मुड़कर देखना पसंद नही करते। अब तो हम और आप एक जैसी ही हालत में हैं और साथ बैठ कर आंसू बहाने से ज्यदा के रहे भी नही।
वैसे समय बड़ा बलवान है। राजनीति तो वैसे भी सांप सीढ़ी, या कहिये कि झूले के समान है। आज निचे हैं तो कल ऊपर भी आएंगे। अब वक्त ख़राब है तो होमवर्क ही कर लो और आने वाले कल कि तय्यारी करो। मगर इतना याद रखना जो तम्हारे साथ हो रहा है उसे दोहराना मत। वरना दिन के बाद फिर रात है।