Wednesday, November 4, 2009

गंगा को मैला किस ने किया ?


राजा भागीरथ अपने पूर्वजों को श्राप से मुक्ति दिलाने के लिए अथक परिश्रम कर गंगा को धरती पर लाये थे। उनके गणों को तो मुक्ति मिल गई मगर गंगा धरती पर आकर मैली हो गई। आज गंगा को प्रदूषण के श्राप से मुक्ति दिलाने के लिए कोई भागीरथ नही मिल रहा। यह कोई एक कहानी नही है बल्कि मानव इतिहास रहा है की मतलब निकल जाने के बाद इंसान हर किसी के साथ ऐसा ही बर्ताव करता है। या यूँ कहिये की मानव मन इस्तेमाल कर फ़ेंक देने की कला में महारत हासिल कर चुका है।
गंगा को मैला किस ने किया? यह लाख रूपये का सवाल है, जिस का जवाब सब जानते हैं मगर बोलना कोई नही चाहता मै भी खामोश रह सकता हूँ मगर खामोशी मेरी फितरत में नही है
मेरे मुल्क में गंगा को माँ की तरह पूजा जाता है। और जैसे एक बूढी माँ आजकल हमारे घर के किसी कोने में माजूर और लाचार कराहती तड़पती रहती है, ठीक उसी तरह का बर्ताव हम गंगा माँ के साथ भी कर रहे हैं। मुझे कहने में कोई गुरेज़ नही की मेरे मुल्क में माँ किताबो, कहानियों और कविताओं में ही अच्छी लगती है। आम ज़िन्दगी में उसकी अहमियत किसी काम चलाऊ आया या एक घरेलु नौकरानी से ज़्यादा कुछ नही। वो भी तब तक जब तक उसके हाथ पाँव चलते हैं या उसकी अंटी में आने दो आने होते हैं जिनके लालच में ही कभी कभी कभार उसे अपनी सेवा करवाने का अवसर मिल जाता है। वरना तो बूढी माँ के हिस्से में दुत्कार, जिल्लत और लाचारी के सिवा शायद ही कुछ आता है। जिन बच्चो को उसने अपना खून पिला कर पाला होता है वो हर पल उसका खून निचोड़ने पर आमादा रहते हैं। हकीकत यही है, भले ही हम अपने ग्रंथों, और किताबों के कितने ही हवाले देते रहें। दो चार ही खुशकिस्मत माँ होंगी जिनके नसीब में आराम और चैन लिखा होगा। गंगा माँ की कहानी भी अलग नही है। आम हिन्दुस्तानी माँ की तरह इस की किस्मत में भी औलाद की गन्दगी, पाप और बेहूदा कचरा धोना ही लिखा है।

जिस धर्म के हवाले से गंगा पूजी जाती है, वो ही इस का सब से बड़ा दुश्मन बन बैठा है। यकीन ना आए तो गंगा के उन किनारों तक घूम कर आइये जहाँ कल तक अमावस्या या पूर्णिमा स्नान के बहाने मेले लगे थे। लाखो की संख्या में लोग वहां नहाने पहुंचे और पीछे छोड़ आए अपनी गन्दगी और कचरा। इस कचरे को हटाने वाला अब कोई नही है। हम तो अपने पाप धो आए और गंगा मैया की फिल्मी आरतियाँ गाकर उस पर अहसान भी कर आए, मगर हमारी पिकनिक का खामियाजा बेचारी गंगा को महीनों भुगतना होगा।



Sunday, October 11, 2009

आओ लोहिया जी के लिए राजनीती राजनीती खेलें!!!


लोहिया जी की पुण्य तिथि है। आओ चलो राजनीती राजनीती खेलते हैं। इस से बेहतर श्रधांजलि हम उन्हें दे भी नही सकते। अब हमारे ज़माने में सिद्धांत, राजनैतिक मूल्य और राजनैतिक सोच जैसी चीज़ें तो बची नही हैं। ना ही हमारे पास लोहिया जैसी दृढ इच्छा शक्ति है और ना ही बुरे से लड़ने का साहस। तो फिर राजनीती राजनीती खेलने के सिवा हमारे पास बचा ही क्या है।
जाओ एक फोटो ले आओ। हाँ, एक दो चार आने की माला भी ले आना। बगैर माला तस्वीर ठीक नही रहेगी। मगर नही ठहरो! ऐसे तो पुण्य तिथि सूनी सूनी लगेगी। हमारे परण आदरणीय, समाजवादी उद्धारक एवं आधुनिक युग के परम समाजवादी चिन्तक, श्री श्री अमर सिंह जी महाराज इस सादगी से नाराज़ हो सकते हैं। भला ये भी कोई समाजवाद हुआ? उनका विचार है कि समाजवाद को पूंजीवाद के ख़िलाफ़ उठ खड़ा होना चाहिए। इसके लिए समाजवादी पाँच सितारा होटलों पर कब्जा कर लें। पूंजीवादियों से बेहतर रहन सहन कर लें।
ऐसे उत्तम विचार हो तभी समाजवाद तरक्की कर सकता है। बात में दम है। तभी तो लोहिया जी के परम शिष्य मुलायम जी भी उनसे सहमत हैं। यकीन ना आए तो पता कर लो जनेश्वर जी से। शायद ला मरिडियन में दिया अमर भय्या का भोज याद हो। उन्होंने मुलायम जी को उस अवसर बार समाजवाद की अचानक हुई तरक्की का ग़लती से बखान कर दिया था और दांत भी खाई। भला चांदी के पलते चम्मच पर सिर्फ़ पूंजीवादी क्यों काबिज़ रहे? समाजवाद को पत्तल और पट्टी के भोज से आगे जाना ही होगा। अकेले इंडिया ही शाईन क्यों करे, समाजवादी भी साथ आने ही चाहियें?
हाँ लोहिया जी भी होते तो बहुत खुश होते। उनके सिद्धांत रहे न रहे मगर समाजवादी वाकई तरक्की पर हैं । अब समजावाद कहीं कराहता है तो कराहता रहे। फिर भी जाने क्यों मन उदास है। क्यों लोहिया जी इस खुशी में हमारे साथ शरीक नही हैं? क्यों नही देखते कि अब राजनीति में शौर्य और पराक्रम कि ज़रूरत नही रही। समाजवादी, पूंजीवादियों को उन्ही के अस्त्र से जवाब दे रहे हैं। समाजवादिओं कि क्रय शक्ति भी अब कम नही रही। कितना खुश होते वो देखकर कि अब राजनीति में आने के लिए सड़कों का संघर्ष ज़रूरी नही रह गया है। अब चिंतन नही करना पड़ता और ना ही मूल्यों पर टिकने की आवश्यकता रह गई है।
अब सब कुछ इतना आसान हो गया है। तभी तो मै कहता हूँ ,आओ राजनीती, राजनीती खेलते हैं। देश और इंसानों से खेलने के बाद सब से ज़्यादा लोकप्रिय अब यही तो खेल रह गया है।

Saturday, October 10, 2009

चिट्ठाजगत को बचाइए प्लीज़ !!!


क्या हम लोग आज़ादी के मायने जानते हैं? ये एक ऐसा सवाल है जिस से हम आजादी के बासठ से ज़्यादा साल गुज़र जाने के बाद भी जूझ रहे हैं। जवाब भी सीधा सा है। हम आज़ादी के साथ जीना सीख गए गए हैं और इस हद तक आजाद हैं के अब दूसरों की आज़ादी में खलल पैदा करने लगे हैं। कर्तव्यबोध हमारे जनमानस में है ही नही। हाँ, अपने अधिकारों की लम्बी चौडी सूची हम हर समय अपनी जेब में धरे घुमते हैं।
अब चिट्ठाजगत को ही लीजिये। यहाँ आजकल कुछ दूषित मानसिकता के लोग अपने निजी वैमनस्य निकलने में जुटे हैं। कहने को चिट्ठाजगत बुद्धिजीवियों की एक ख़ास प्रजाति का प्रतिनिधित्व करता है मगर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर हम काफ़ी आगे निकल गए हैं। इस हद तक, की अब हम इस आमधारणा को बल देते लगते हैं की आम एशियाई मूल के व्यक्ति को डंडे का शासन ही रास आता है। और इस धारणा को भी, कि भारतीय बगैर कठोर कानून और नियंत्रण के पाकिस्तानी या बंगलादेशी से बेहतर व्यवहार नही करते।
बुजुर्ग याद करते हैं कि किस तरह लोग इमरजेंसी के दिनों में अनुशासन के साथ रहते थे। आमतौर पर सरकारी दफ्तरों से गायब रहने वाले बाबू भी अप्रत्याशित तौर पर समय से अपनी कुर्सी पर नज़र आते थे। इसी तरह पाकिस्तानियों के लिए भी कहा जाता है कि जनरल जिया के दौर में वो बहुत अनुशासित थे। मुशर्रफ़ के सख्त रवय्ये वाले दिनों में भी पाकिस्तानी बेहतर व्यवहार करते थे। इतना ही नही हम एशिया वासियों के व्यवहार कि असली परीक्षा सख्त कानून वाले देशों भी होती है जहाँ जुर्माने या सज़ा के डर से हम सब से ज़्यादा मर्यादित व्यवहार कि होड़ करते दिखते हैं।इस पर शोध किया जा सकता है कि आम भारतीय या पाकिस्तानी को विदेशी हवाई अड्डे पर उतारते ही ऐसा क्या हो जाता है कि वह कानून का अक्षर्तः पालन करता है। और हमारी मिटटी में ऐसा क्या है कि यहाँ आकर बड़े से बड़े कानून कि धज्जी उडाने में एक पल की भी चूक नही होती।
चिट्ठाजगत वाले भी शायद किसी कड़े नियामन कानून के इंतज़ार कर रहे हैं। और इंतजार क्या वो तो किसी कडे कानून को आमंत्रण दे रहे हैं। यकीन न आए तो ज़रा भाषा पर गौर करें। एक मशहूर चिट्ठे पर आजकल धर्म युद्घ छिड़ा है।यहाँ दो चार योद्धा अपने गाली पराक्रम के सहारे पाठकों को प्रभावित करने कि कोशिश कर रहे हैं। एक अन्य महाशय तो गलियों के साथ दो दर्जन कचरे चिट्ठे भेजकर चिटठा स्वामी हो हड़का रहे हैं। ये तो बस बानगी भर है। कुछ चिट्ठे तो अश्लीलता कि सभी सीमाएं लाँघ चुके हैं। कुछ लोग टी० आर पी० की ज़ंग में ऐसा उलझे हैं कि टटपूंजिया खबरी चैनलों को भी मात करते नज़र आते हैं।
बेहतर होगा कि हम लोग स्वनियंत्रण कर बेहतर उदाहरण पेश करें। वरना वो दिन दूर नही कि किसी नियमन आयोग का चौकीदार हमारे सर पर बैठा दिया जाएगा। तब सिवाए पछताने के कुछ हासिल नही होगा । उस से पहले ही हम चिट्ठाजगत के कचरे को साफ़ कर एक बेहतर माहौल बनाएं।शायद ये हम सभी के हित में है।

Friday, October 9, 2009

राष्ट्रीयता, धर्म और हम!



राष्ट्रीय राजमार्ग 24 अब चार लेन का है और जल्दी ही 6 लेन का भी हो जाएगा। इतना ही नही सड़क के बीच में एक हरित पट्टी भी है जो कम से कम 5 फीट चौडी तो है ही। ज़ाहिर है इतने सब के बाद राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली को वाया मुरादाबाद लखनऊ से जोड़ने वाले इस राजमार्ग पर यात्रियों की मुसीबत ख़त्म हो जानी चाहिए थी। मगर ऐसा हुआ नही है।
सरकार का दावा था की चार लेन का बनने के बाद इस सड़क मार्ग से लखनऊ की दूरी कम से कम चार घंटा कम हो जाएगी और रोजाना लगने वाले जाम से आम आदमी को निजात मिल ही जाएगी। मगर हाल ये है कि इतने सब के बावजूद दिल्ली से ब्रजघाट पर गंगा का पुल पार करने में ही चार घंटे से ज़्यादा लग जाते हैं। इतना ही नही इस राजमार्ग पर महीने की हर अमावस्या और पूर्णिमा को रूट दाइवर्ज़न लाजिमी है। जिसके चलते यात्रियों को कम से कम ७० किलोमीटर ज़्यादा का चक्कर लगाकर आना पड़ता है।
इस के अलावा शिवरात्रि, कार्तिक पूर्णिमा मेले का एक महीना और कई अन्य पर्व जिन पर गंगा स्नान परम्परा बन गया है आम यात्रियों के लिए मुसीबत लेकर ही आते हैं। रही सही कसर सावन में पूरी हो जाती है जब हर सोमवार से एक दिन पहले और एक दिन बाद तक के लिए हापुड़ से गजरौला के बीच राजमार्ग पर परिवहन संचालन पर स्थानीय प्रशासन को रोक लगनी पड़ती है।
इस सब के पीछे राजमार्ग पर दुर्घटना और उसके बाद बवाल की आशंका से प्रशासन के पसीने छूटना है। अभी पिछलेसाल ही की तो बात है। एक कांवरिये के कार की टक्कर से घायल होने के बाद जो बवाल मचा वो 6 ट्रक और तीन राज्य परिवाहन निगम की तीन बस जलने के बाद ही शांत हुआ। इसके अलावा दर्जनों वाहनों के शीशे तोड़ दिए गए। एक अन्य दुर्घटना के बाद राजमार्ग पर जमकर बवाल हुआ। लोगो ने जाम लगा दिया और कई वाहनों पर अपना गुस्सा उतारा।
कुल मिलाकर धार्मिक प्रयोजन से इस राजमार्ग पर साल में लगभग सवा सौ दिन यातायात ठप्प रहता है। इस से जो बाक़ी बचता है उसकी कसर किसान यूनियन के आए दिन लगाए जाने वाले जाम, राजनैतिक दलों का गुस्सा, और आम आदमी की झुंझलाहट पूरा कर देती है. सबके गुस्से का नजला इस गरीब राजमार्ग पर ही उतरता है।
कायदे में होना तो यह चाहिए था की 4 लेन हो जाने के बाद कम से कम आधे राजमार्ग पर तो ट्रैफिक चल ही सकता था। कांवरिये या आम श्रद्धालु हरित पट्टी के रूप में बनी विभाजिका के एक तरफ़ आराम से जा सकते थे क्योंकि यह हाईवे की पुरानी चौडाई से अब भी ज्यादा है। मगर ऐसा हुआ नही।
हम लोग पश्चिम में जाते हैं तो वहां बगैर किसी की टोक के एक सभ्य शहरी का सा बर्ताव करते हैं मगर अपने देश में हम पर कोई कानून लागू नही होता। खासकर जहाँ हम झुंड में आए वहीं बंदरों सरीखा बर्ताव कर साबित करते हैं कि हम अपने पूर्वज बन्दर से मिले वंशानुगत गुणों को नही भूले हैं। राष्ट्र भक्ति पर हम घंटो बोल सकते हैं। तथाकथित सभ्यता और सस्कृति के लंबे लंबे भाषण भी हमें याद हैं। मगर राष्ट्र की प्रगति में हमारी दिनचर्या, धर्म और निजी हित सब से ज़्यादा आड़े आते हैं। इतने पर भी हम ज़ोर से नारा लगाते हैं, "मेरा भारत महान। "

Wednesday, October 7, 2009

छात्राओं के कमरे में असमय क्यो गए ए एम यू के वी० सी० ?


क्या एक कुलपति को अधिकार है कि वो लड़कियों के कमरे में बगैर अनुमति लिए घुस जाए ? या फिर लड़किओं के हॉस्टल का समय, बे- समय दरवाज़ा खटखटा दे? कोई माने ना माने, मगर अलीगढ मुस्लिम विश्विद्यालय के कुलपति को इस बात से कोई फर्क नही पड़ता की वो जिस कमरे में वह घुस रहे हैं वो किसी छात्र का है या छात्रा का।
कुलपति आजकल अपने ख़िलाफ़ लगे आरोपों को दरकिनार करते हुए विश्विद्यालय में कानून का राज स्थापित करने में लगे हैं। उनके मुताबिक अनुशासन के तराजू में लड़के और लड़कियां सब बराबर हैं। अपनी इसी मुहिम के तहत पिछले हफ्ते उन्होंने लड़किओं के सबसे बड़े छात्रावास, इंदिरा गाँधी हॉल का औचक्क निरिक्षण किया। कुलपति को वह कोई अनियमतता मिली या नही कोई नही जानता मगर ख़ुद कुलपति एक बार फिर विवाद में ज़रूर आ गए हैं। लड़कियों का आरोप है के उनके कमरे में कुलपति बिना किसी पूर्व सूचना के किसी कमांडो की तरह घुसे चले आए। कायदे में यह काम कोई महिला वार्डेन करती तो समझ में आता है। छात्रों के कमरे में इस तरह उनका प्रवेश ग़लत एवं मर्यादा के ख़िलाफ़ है। छात्राओं ने कुलपति पी० के० अब्दुल अजीस के इस क़दम का विरोध किया तो निलंबन की धमकी देकर उन्हें खामोश कर दिया गया।
इस सम्बन्ध में विश्वविद्यालय प्रशासन का कहना है कि यह एक सामान्य प्रक्रिया है और इसमे विवाद जैसा कुछ नही। जबकि नाम न छपने कि शर्त पर छात्राएं कह रही हैं कि कुलपति अमर्यादित व्यवहार कर रहे हैं और देर, सवेर लड़किओं के हॉस्टल में घुस आना उनकी नियत पर सवाल खड़े करता है।
बहरहाल पहले ही अपनी डिग्री कि प्रमाणिकता, भ्रष्टाचार और भाई भतीजावाद के आरोप झेल रहे वी० सी० के खिलाफ उनके विरोधियों को एक अस्त्र और मिल गया है। दूसरी तरफ़ ए० एम० यू० के दामन में एक और विवाद का छींटा पड़ा है।

Tuesday, October 6, 2009

कहाँ है बया का घोंसला ?


शायद आपको याद हो कि बचपन में एक गौरय्या नाम की चिडिया आपके घर आँगन में फुदकती फिरती थी? आपको भी याद नही आ रहा? कोई बात नही। बया का घोंसला तो याद होगा? जी हाँ वही। खूबसूरत सा, ऊंचे ऊंचे पेड़ों पर लटका रहने वाला। ज़रा घर से बाहर निकल कर देखिये। कहीं मिल जाए शायद। नही दिख रहा? चलिए जंगल में देख कर आते हैं। अरे ये क्या ? ये तो यहाँ भी नही है।
और कोशिश करना बेकार है। क्योंकि अब शायद ही ये आपको कहीं नज़र आए। गिद्ध की तरह पक्षियों की यह प्रजातियाँ या तो विलुप्त हो चुकी हैं या फिर अपनी आखिरी साँस कहीं गिन रही हैं।
गौरय्या को तो घर आंगन की ही चिडिया कहा जाता था। एक समय था जब गौरय्या की चहचहाहट दिन निकलने के साथ की कानो में रस घोला करती थी। ये नन्ही फुदकती चिडिया कब गायब हो गई किसी को पता ही नही चला। अब ये सिर्फ़ ख्वाजा अहमद अब्बास की कहानी अबाबील (The sparrows) में ही मिला करेगी।
यही हाल बया का भी है। इसकी घर बनने की कला के दीवाने दुनिया में हजारों मिल जाएँगे मगर बया ख़ुद हजारों की तादात से भी कम पर सिमट गई है। इसके खूबसूरत घोंसले ना तो ऊंची खजूरों के पेड़ पर लटके नज़र आते हैं और ना ही कीकर पर। ये पिद्दी भर की चिडिया शायद इतनी छोटी हो गई है के अब नज़र ही नही आती।
दरअसल ये भी हमारे तथाकथित विकास की भेंट चढ़ गई हैं। हम तेज़ी से विकास कर रहे हैं। हमारे उद्योगों की चिमनियाँ अब पहले से कम धुआं उगलती हैं मगर इनकी तादात इतनी ज़्यादा हो गई है कि पशु पक्षी साँस लेने भर कि ओक्सिजन को तरस गए हैं। हमने जल को इतना दूषित कर दिया है कि ये बेजुबान अब पानी को भी तरस जाते हैं। विकास कि हमारी अंधी दौड़ अभी कितनी और प्रजातियों को निगल जाती है, बस देखते रहिये।

Friday, September 18, 2009

गंगा की गोद में .


आज पित्र विसर्जन अमावस्या थी सो मैंने सोचा क्यों ना मै भी गंगा स्नान कर ही आऊं। सौभाग्य से गंगा मेरे घर से महज़ छै: किलोमीटर की दूरी पर है बहती है। हालाँकि 'बहती' शब्द का इस्तेमाल पर कुछ लोग अतिशयोक्ति कहकर आपत्ति लगा सकते हैं फ़िर भी गंगा तो बहती ही है।
कुछ साल पहले तक तो तेज़ रफ़्तार से बहती थी गंगा बस अब रफ़्तार धीमी हो गई है। एक मरणासन्न बुधिया से इस से ज्यादा रफ़्तार की उम्मीद रखना बेईमानी है। मेरे यहाँ तो फ़िर भी बहती है आगे जाकर तो कहते हैं के रेंगती भी नही। जाने भी दो फिलहाल गंगा की रफ़्तार चर्चा का केन्द्र बिन्दु नही है। चर्चा तो याहन जुटे श्रद्धालु हैं। देख कर खुशी हुई कि लोग अपने मृत पूर्वजों को आज भी याद करने का समय निकाल लेते हैं। ऐसे समय में जब जीवित माता पिता घर के किसी कोने में पड़े कराह रहे हों वहां धार्मिक अनुष्ठान के चलते ही सही पूर्वजों को याद कर लेना अपने आप में उल्लेखनीय है।
इस के पीछे दो कारण हो सकते हैं। पहला तो धार्मिक कर्मकांड के चलते मजबूरी या अपने भविष्य को लेकर डर। इसका आभास हमारे पूर्वजों को शायद हो गया था। वो आने वाली पीढीयों के अपने बुजुर्गों के लिए घटते आदर से वाकिफ थे, शायद इसी लिए इस तरह कि वयवस्था कि गई होगी।
मगर इस सब के बीच आज कव्वे कि किस्मत से भी कुछ जलन सी महसूस की। अपने पूर्वजों की तृप्ति की आस में कई लोगों को इस बेचारे जीव की सेवा करते देखा तो मन भर आया। इस सेवा कार्य में बहुत से ऐसे लोग भी रहे होंगे जिन्होंने जीवित रहते कभी अपने बुजुर्गों को चाय के लिए भी पूछा हो। इनके तर्पण को इनके पित्तर किस मन से स्वीकार कर रहे होंगे, सोचने का विषय है।
अब जाने भी दो। हमेशा उल्टा सोचना भी ठीक नही। वैसे मै आपको बता दूँ, जिस तिगरी तट पर गढ़मुक्तेश्वर के नज़दीक मुझे जाने का सौभाग्य मिला था इसी स्थान पर राजा सगर के गणों को श्राप से मुक्ति भी मिली थी, जिसके लिए गहन तपस्या कर सगर भागीरथी को धरती पर ले आए थे। इसी जगह पर पांडवों ने महाभारत के युध्ध के उपरांत अपने परिजनों का पिंड दान किया था। इतना ही नही पानीपत के युद्ध में अहमद शाह अब्दाली के हाथों परास्त होकर लौटी मराठा सेना ने भी अपने मृत सेनानियों का अस्थि विसर्जन यहीं किया था। इस के साथ ही उनकी आत्मा की शान्ति के लिए मराठों ने यहाँ दीपदान की प्रथ भी शुरू की।
इतना ही नही इसी तट के दूसरी ओर गंगा माता मन्दिर का निर्माण कार्य, सुलतान गयासुद्दीन मुहम्मद बलबन ने करवाया। इस तट पर कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर एक विशाल मेला भी लगता है जिसका पहली बार सरकारी प्रबंध मुग़ल सुलतान बाबर ने करवाया था।

Wednesday, September 16, 2009

आरुशी का कातिल कौन?


आरुशी तलवार हत्याकांड में एक बार फिर सी०बी० आई० के हाथ जांच में निराशा ही लगती दिख रही है। जिस मोबाइल फ़ोन के दम पर खबरिया चैनल जाँच एजेंसियों के हाथ कातिल तक पहुँचने का दावा कर रहे थे वो किसी काम का भी नही निकला। एक तो सोलह महीने बाद किसी फ़ोन से डाटा रिट्रीव कर पाना लगभग नामुनकिन है दूसरे इस फ़ोन में जा एजेंसियों के हाथ असली डाटा कार्ड लगा ही नही। बल्कि जिस रामफूल से ये मोबाइल बरामद किए जाने का दावा किया गया था उस के मुताबिक उसके पास जब यह फ़ोन आया तो उसमे कोई कार्ड लगा ही नही था॥ उस के मुताबिक जब यह फ़ोन उसकी बहन को पाया तो इस फ़ोन में ना सिम कार्ड था और ना ही मेमोरी कार्ड। वो मोबाइल चलाना जानती ही नही सो उस ने बेकार समझ कर ये फ़ोन उसे दिया था, इस उम्मीद में की शायद बाही के किसी काम का हो। फिलहाल तो एक बार फिर इस बहुचर्चित केस की गुत्थी उलझती नज़र आ रही है।
मगर इस समय का सब से बड़ा सवाल ये है की इस केस की गुत्थी उलझती जा रही है या उलझाई जा रही है ? इस सवाल का जवाब पाना आसान नही मगर हालत का इशारा तो यही है के कोई कोई न कोई इस मामले को उलझाए रखना चाहता है। डाक्टर तलवार खबरिया चैनलों पर दावा कर रहे हैं के उनकी बेटी का क़त्ल उनके नौकरों ने ही किया है। हो सकता है उनका दावा सच हो मगर जिस तरह इस हाई प्रोफाइल मामले में लगातार सबूतों से छेड़खानी और पुलिस का दोहरा चेहरा सामने आ रहा है उसे देखकर तो उनके दावे पर यकीन मुश्किल हो जाता है। फ़िर सवाल ये भी है के उनके नौकर हेमराज का कातिल कौन है और उसका आरुशी के क़त्ल से क्या वास्ता?
इस बात पर यकीन कर पाना मुश्किल है के लो प्रोफाइल नौकर जांच एजेंसियों को इतने दिन तक गुमराह कर सकते हैं। अभी तक आरोपी बनाए गए लोगों में ख़ुद डाक्टर तलवार को छोड़ कर किसी और की इतनी हैसियत नही है की वो किसी तरह की जोड़ तोड़ कर सबूतों की अदला बदली करा दे। ख़ास कर जैसे फोरेंसिक जांच के लिए भेजे गए आरूषी के D.N.A सैम्पल के साथ छेड़खानी की बात सामने आई है उसे कोई लो प्रोफाइल आदमी अंजाम दे ही नही सकता।
जिस तरह आम आदमी से पुलिस का अदना सा सिपाही पेश आता उसे देखकर तो कोई यकीन कर ही नही सकता के दो चार मामूली नौकर मिलकर बार बार जांच का रुख बदल सकते हैं। जिस रामफूल से मोबाइल मिला है वो भी कोई तुर्रम खान नही है। उसकी बहन घरो में बर्तन साफ़ करती है तो वो ख़ुद एक चपरासी है।
फिलहाल जो हालत हैं उनका इशारा है के जाच के लिए हाथ पैर मार रही एजेंसियां तब तक कामयाब नही होंगी जब तक छेड़खानी करने वालो के साथ सख्ती से पेश नही आती।
इतना भी तय है के आरूषी के क़त्ल का सुराग नॉएडा के जलवायु विहार की उसी चार दिवारी में क़ैद है जिसमे उस ने आखिरी साँस ली। उस के बाहर खुक्च ढूंढ़ना ख़ुद पुलिस और जांच एजेंसियों पर सवालिया निशाँ लगाता रहेगा।

Saturday, September 12, 2009

बारिश पर सट्टा लगाओगे क्या?


चार दिन की लगातार बारिश ने लोगों को परेशान कर दिया। और लोगों को भी क्या, सच कहिये तो खुदा की ख़ुद की परेशानी बढ़ा दी। हर तरफ़ से एक ही आवाज़, 'भगवान् बस भी करो'। अल्लाह भी परेशान, ये आदमी है या कुछ और? अरे कोई जुबां भी है इसकी? अभी कल तक तो इन सबकी साझा आवाज़ आ रही थी बारिश कर दो, और अब? कितना करह रहे थे सब। कुछ भी कर दो इनको सुकून ही नही मिलता।
अभी दिन ही कितने हुए हैं। हर तरफ़ से त्राहि माम, त्राहि माम। हर एक का यही उलाहना, खुदा क्या अब मार कर ही दम लेगा। उलाहना आज भी वही है, बस वजह बदल गई है। कल जो आवाजे बुलंद होकर बारिश के लिए दुआ कर रहे थे वही इसके थमने को बेकरार हैं। अरे अभी हुई ही कितना है। मौसम विभाग भी अभी इसे औसत से २६ प्रतिशत कम तक मान रहा है। बंद कर दूँ तो फिर रोते कराहते आयेंगे, "या अल्लाह बरसा दो, मेघ दो पानी दो..."।
आम आदमी की कराहट तो समझ आती है, वो भी तो दिल दिल में दुआ कर रहे हैं जिन्हें कुदरत के होने में ही शक है। और वो भी जो हकीकत में शैतान के पथ प्रदर्शक की भूमिका निभा रहे हैं खुदा से ज़्यादा ही मन्नतें कर रहे हैं। इनका दर्द ज़्यादा बारिश से जनजीवन की अस्तव्यस्तता नही बल्कि कुछ और वजह से है। इन्हे इस बात से मतलब नही के बरसात में घर टपक रहा है, या फिर गिर भी सकता है। इनके महल में तो बरसात की सीलन भी नही पहुँचती। फिर ये डर किस चीज़ का?
अब आप भी जानने को ज़्यादा जिज्ञासु न हों मई बता ही देता हूँ। ये देखने में हम आप जैसे ही हैं मगर इनके जीवन में जो उतार चढाव आते हैं उनके सरोकार ज़रा जुदा हैं। इन्हे फ़िक्र है है के बारिश अगर यूँ ही बरसती रही तो सूखा कैसे पड़ेगा? अरे ये क्या ये तो चावल की फसल को बहुत ज़्यादा फायदा हो गया। इनका दिल इस बात से भी डूब रहा है की इस बारिश से दाल की फसल अच्छी हो जाएगी।
जी हाँ आप ठीक समझ रहे हैं। ये सटोरियों की दास्ताँ सुनाई जा रही है। लोगो के ग़म से इन्हे खुशी हासिल होती है। इन्हे इस बात से कोई सरोकार नही की चावल अगर दो रूपये किलो महंगा होगा तो कई परिवारों में लोगों को आधे पेट खाकर ही सोना होगा। दाल अगर नब्बे रूपये किलो बिक रही है तो बिके । इन्हे क्या? इसी में तो इनकी खुशी है। इस से देश की दो तिहाई आबादी का बजट बिगडेगा मगर इनका सेंसेक्स उपर उठता ही जाएगा। इन्होने जो माल अपने गोदामों में जमा कर रखा है उसे दीमक भी लग जाए तो कोई फ़िक्र नही। एम् सी एक्स पर लगाया हुआ सट्टा उसकी ना सिर्फ़ भरपाई कर देगा बल्कि इन्हे बाज़ार की बुलंदी तक ले जाएगा।
जब इतने स्वार्थ जुड़े हों तो फिर फ़िक्र लाजिमी है। सो अब पेड दुआओं का दौर शुरू हो गया है। बारिश रोकने के लिए भगवन को रिश्वत आफ़र की का रही है। हवन वगैरा का सहारा लिया जा रहा है। पंडे पुरोहित भरोसा दिला रहे हैं, करोडो लोग भूके मरें तो मरें, किसान बरबाद हो तो हों, कोई क़र्ज़ में डूब कर आत्महत्या करे तो करे। यजमान आप फ़िक्र न करें। आप बस खर्च करते जाइए। भगवान् को हम रोक लेंगे। अगर बारिश आपका कारोबार डूबा रही तो हमारा क्या होगा। फिर आम आदमी की ज़िन्दगी में भी तो बरसात कीचड़ घोल रही है। भले हो वो नगर निगम के सौजन्य से हो। इसी बहाने आम आदमी के दर्द भी तो आप बाँट ही लेते हैं।
क्या कहा? शैतान और रहमान हमेशा साथ रहते हैं? शायद सटोरिया ठीक ही कह रहा है।

Thursday, September 10, 2009

दिल्ली में दिल नही लगता...


उस रोज़ जाने मेरा वक्त ही ख़राब आया था या फिर नियति को यही मंज़ूर था, कि मैं दिल्ली चला गया। दिल्ली यूँ तो मुझ से कभी दूर नही रही मगर ना जाने क्यों दिल्ली जाकर हमेशा ही मेरा दिल उचाट हो जाता है। इस में दिल्ली का कोई दोष नही। दोष तो मेरी आदतों का है जो मेरी आराम तलबी और मेरे निकम्मेपन ने बिगाड़ दी हैं।
दिल्ली कि रफ़्तार अब मुंबई को मात देती लगती है। यहाँ के लोग हालाँकि अभी मुंबई जितना स्वकेंद्रित, स्वार्थी और अपने आप में और अपने लिए जीने वाले नही हुए हैं। मगर फिर भी जाने क्यों लगता है कि हमारी दिल्ली अब दिल्ली नही रही और ना ही दिल्लीवासियों का पहले जैसा बड़ा दिल। धूल, धूप और उलझन के सिवा जो एक और चीज़ मुझे यहाँ कचोटती है वो है दिल्ली में पीने का पानी। अब क्या बताऊँ उस रोज़ कि भयंकर गर्मी ने मुझे बेहाल कर दिया। मै ग्यारह लीटर पानी पी गया मगर इस सब में मेरी जेब से खाने के पैसे भी ख़त्म हो गए। दिल्ली मेरा गाँव नही है जहाँ भले ही पनघट या तालाब ख़त्म हो गए हों पर पानी पीने के दाम नही चुकाने होते।
मेरे पास पैसे थे मैंने दाम चुका दिया । इतना ही नही जब पानी हाथ नही लगा तो कोल्ड ड्रिंक भी पी लिया । मगर दिल्ली में ऐसे कितने लोग होंगे जो रोजाना डेढ़ सौ रूपये प्रतिदिन का पानी पीने का सामर्थ्य रखते होंगे? ज़ाहिर है दिल्ली कि आधी से ज़्यादा आबादी मिनरल वाटर कि एक बोतल का दाम चुकाने की हालत में नही है। दिल्ली सिर्फ़ आलिशान अट्टालिकाओं में वास करने वाले मुट्ठी भर लोगो की नही है। यह लोगो की भी नही है जो फुटपाथ पर ज़िन्दगी गुज़र देते हैं। दिल्ली सिर्फ़ झुग्गी वालो की भी नही है।यह उन लोगों का शहर भी नही है जो रोजाना लाखों की तादात में यहाँ काम की तलाश में आते हैं और शाम होते होते लौट जाते हैं। दिल्ली इन सब की है , बल्कि हम सब की है।
मगर जब दिल्ली की आधी से ज़्यादा आबादी का दर्द समझने की कोशिश करता हूँ तो लगता है कि दिल्ली मेरी नही हो सकती। मुझे काम चाहिए और दिल्ली में वो है भी मगर इन हालत में गुज़र कैसे होगा नही जानता। मजबूर दिल्ली जाने को उकसाती है तो दिल यहाँ कि मुसीबतों का उलाहना देता है। हौंसला इन सब से लड़ने की बात करता है मगर दिमाग कहता है, तुम कोई क्रांतिकारी हो क्या? जब नही तो बस जैसे कट रही है गुजार लो। अपने दर्द क्या कम हैं जो नई नई आफतों से लड़ने के ख्वाब देखते हो। मगर फिर भी दिल्ली तो दिल्ली ही है।

Tuesday, September 8, 2009

बादल हुए बेईमान सजनी...



बरसात के मायने ही बदल गए लगते हैं। अब ना वो पहले जैसी झमाझम बारिश होती है और ना ही पहले जैसे कजरारे बादल आसमान पर नज़र आते हैं। याद आते हैं वो दिन जब पानी में कागज़ की कश्तियाँ मन की हिलोरों सी डोलती हुई दूर निकल जाती थीं। जगह जगह भरे हुए पानी में घर वालों की सख्ती के बावजूद धमाचौकडी वाला वो बचपन अब वापस नही आने वाला। और जो एक चीज़ वापस आती नही लगती है बचपन वाली झमाझम बरसात।

लोग कह रहे हैं बादल बेईमान हो गए हैं। कहीं फट कर बरसाने को तैयार हैं तो कहीं मुह छिपा कर निकल जाते हैं। हालाँकि बरसात की स्थिति में सुधार का दावा मौसम और कृषि विभाग कर रहा है और बारिश भयंकर सूखे की आशंकाओं को भी खारिज करती दिख रही मगर इस साल के हाल हमारे लए किसी चेतावनी से कम नही।

ऐसा नही है के बारिश बेईमान ही गई। दरअसल पिछले कुछ सालों में मौसम का चक्र ही बिगड़ गया है। रेगिस्तान पर बादल बरसने की खबरें आती हैं तो हरे मैदानों पर झुलसाने वाली गर्मी पड़ती है। गर्मी अब जल्दी आती है और देर से जाती है। सर्दियाँ एक बार आ जाती हैं तो लगते है वापस जाएंगी ही नही। यही हाल बरसात का भी है। बरसात बेईमान नही हुई है बल्कि थोड़ा देर से आती है। फिर बरसात ही क्यों ? पूरा मौसम चक्र ही दो महीना लेट हो गया है।
इस सब का जिम्मेदार कौन है? ज़ाहिर है हम ही लोग। मौसम चक्र बिगाड़ने में जितना हाथ ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति मान्य श्री मानव जी का है किसी और का नही। एक क़व्वाली के बोल याद आते हैं जिस में कव्वाल ईश्वर की तरफ़ से कह रहा है " मै बना कर तुझे ख़ुद परेशान हूँ... तुझ को दुनिया में लाना ग़ज़ब हो गया.." हालाँकि शायर ने ये सब किसी औरत के लिए कहा है मगर प्रकृति से छेड़छाड़ की बात आती है तो ये शब्द पूरी मानवजाति पर ही लागू होते हैं। हम ने पहाडो को तोड़ कर रास्ते बना दिए। आसमान पहाड़ कर चाँद पर कब्जा कर लिया। सागरों का सीना चीर कर वहां भी विजय पा ली। मगर अपनी जीत के गुमान में हम भूल गए कि हम इस ज़ंग में कुछ हासिल कर रहे हैं तो कुछ खो भी रहे हैं। इस तथा कथित माविया विकास का रास्ता वन वे ट्रैफिक कि तरह ही है। यहाँ वापसी कि कोई गुंजाइश नही रही। ईश्वर ने हमें बनाया था तो उस का दिल भी बहुत बड़ा है। प्रकृति ने भी जहाँ तक हुआ हमारी कुचेष्ठाओ को काफ़ी हद तक बर्दाश्त किया। मगर अब तो हद ही हो गई है।
बात सिर्फ़ तथाकथित मानवीय विकास की ही नही रह गई है। इस अंधी दौड़ में हम काफी आगे निकल गए हैं। मानव का लगातर विजय ने उसे दम्भ से चूर कर दिया है। अपने मग़रूर मिजाज के चलते आदमी प्रकृति के चेतावनिओं को लगातार अनदेखा करता चला आ रहा है। मगर ये ज़्यादा दिन चलने वाला नही है।
हम लगातार प्रकृति का इम्तेहान ले रहे हैं और दंभ में चूर उसे लगातर कुचलने पर आमादा हैं। जीत के नशे में हम भूल गए हैं कि कुदरत भी हमारा इम्तेहान ले सकती है।ओंर जिस दिन ऐसा होगा उस दिन हमारे पास पछताने का भी वक्त नही होगा।

Friday, September 4, 2009

बेरंग पान, बेनूर होंट


अगर आप पान खाने के शौकीन हैं तो आपकी सेहत के साथ साथ जेब के लिए भी बुरी ख़बर है। मौसम की मार और बीमारी के चलते इस बार पान की फसल को काफ़ी नुकसान हुआ है। इसका सीधा असर बाज़ार में पान की कीमतों पर पड़ा है। आम तौर पर दो से तीन रूपये में बिकने वाले सादे पान के लिए अब आपको पॉँच से लेकर सात रूपये तक चुकाने पड़ सकते हैं।वरना तो बाज़ार में सौ से पाँच सौ रूपये तक बिकने वाले स्पेशल पान भी हैं, मगर उनका आम आदमी से कुछ ख़ास लेना देना नही है।
अब शायद ही कोई आप से नुक्कड़ तक चलकर पान खाने का इसरार करे। नुक्कड़ की रौनक कुछ धुंधली सी पड़ गई है और पान की दुकानों पर मरघट का सा सन्नत पसरा है। इसकी वजह पान की कीमतों में हुई भारी वृद्धि है। ज़ाहिर है आदमी बकरी की तरह खाली पत्तियां चबाकर तो खुश हो नही सकता। पान में और भी कई सारी चीज़ें डाली जाती हैं जो इसे ना सिर्फ़ लजीज बनाती हैं बल्कि कुछ मामलो में तो आयुर्वेदिक औषधि तक की श्रेणी में ला देती हैं।
पुराने समय में तो पान खाने को ना सिर्फ़ शान ओ शौक़त से जोड़ कर देखा जाता था बल्कि पान को एक लज़ीज़ व्यंजन की तरह परोसा भी जाता था। आज भी पान के कद्रदानों की संख्या कम नही है। मगर यही हाल रहे तो शायद ही कोई गंगा किनारे का छोरा पान की शान में कसीदे पढ़कर ठुमके लगाये। माशूका के होंटो की सुर्खी और नवाबी मिजाज के लोगो की नजाकत और नफासत भी मंहगे पान की भेंट चढ़ जाने वाली है। अब तो बस उम्मीद और दुआ ही की जा सकती के पान के दाम घाट जायें।

दरअसल इस साल पूरा उत्तर भारत भयंकर सूखे की चपेट में है। बादल बरसे मगर इतनी देर से की कई फसलो ने तो दम ही तोड़ दिया। अब भला नाज़ुक और नफीस पान इतनी गर्मी कैसे बर्दाश्त कर पाता सो आधी से ज़्यादा फसल चौपट हो गई। रही सही कसर पान में लगी गिन्दार और दूसरी बिमारिओं ने पूरी कर दी। उधर पिछले कुछ समय में कत्थे और छाली के दामो में काफ़ी वृद्धि हुई है। सो पान का पत्ता आम आदमी के बस से बाहर की दौड़ लगा रहा है।
अब पान खाकर इतराने का वक्त शायद निकल गया है। तम्बाकू का विरोध करने वाले शायद इस से खुश हों मगर तम्बाकू के बिना भी पान काफ़ी बिकता है। पान के चाहने वाले इस सदमे से उब़र पाएंगे भी या नही, कहा नही जा सकता। फिलहाल तो हम इस मुसीबत की घड़ी में उन्हें सांत्वना ही दे सकते हैं।

Wednesday, August 19, 2009

जब गीदड़ कि मौत आती है...


कहते हैं की जब गीदड़ की मौत आती है तो वो शहर की तरफ़ भागता है।मगर आजकल ऐसा नही होता। शहर जंगल की तरफ़ भाग रहे हैं और रफ्तार भरे हाईवे गीदड़ की मौत का कारण बन रहे हैं। जी हाँ अब गीदड़ मरने के लिए शहर नही आता बल्कि सिर्फ़ हाईवे पार करने की कोशिश करता है।यकीन ना आए तो राष्ट्रीय राजमार्ग २४ या राष्ट्रीय राजमार्ग ९३ पर गुज़र कर देख लीजिये। गंगा और इस के आसपास के खादर के इलाके में हाईवे गीदडों के लिए यमदूत बन कर दौड़ रहे हैं।
अब ये लगभग रोजाना की ही बात हो गई है। कहने को तो गंगा के किनारे से करीब दस किलोमीटर की सीधी पट्टी को हस्तिनापुर वन्य जीव विहार का नाम दिया गया है। इस इलाके में नीलगाय, सांबर, गजेटिक डोल्फिन, गीदड़, हिरन, और विभिन्न प्रजाति के सौंप, इत्यादि विचरण करते नज़र आ जायेंगे। वन्य जीव विहार बनने से पहले तक भी शायद इनकी ज़िन्दगी में इतना खलल ना था। मगर अब तो इन सब ही की जान पर बन आई है। राष्ट्रीय राजमार्ग २४ को फोर लेन कर दिया गया है और अब इसे ६ लेन बनाए जाने की तय्यारी है। इस मौत के हाईवे पर ख़ुद इन्सान अपनी रफ़्तार का मारा आए दिन खून में डूबा नज़र आता है। उसकी अपनी मौत के पीछे कोई भी कारण हो मगर इंसान इस अनचाही मौत से बच सकता है। मगर इन बेजुबान जानवरों की कौन कहे। इन्हे हाईवे पर चलने के नियम कौन सिखायेगा? फिर ये बेचारे क्यों नियम सीखें भला? इन्हे तो आज़ादी से अपना जीवन गुजारने की आदत है। हम ने ना सिर्फ़ इनकी आजादी छीन ली है बल्कि अब तो इन्हे चैन से जीने भी नही दे रहे।
कम से कम हम इतना तो कर ही सकते थे की इन्हे आसानी से सड़क के पार जाने के लिए सुरक्षित रास्ता उपलब्ध करवा देते। पश्चिम के देशों में इस चीज़ का ख़ास ख्याल रखा जाता है। वहां तेज़ रफ़्तार हाईवे के किनारे फेंसिंग की जाती है ताकि भूले से कोई जानवर सड़क पर आकर अपनी तथा इंसान की मौत का कारन बने। साथ ही उन्हें आरपार गुजरने देने के लिए अंडर पास भी बनाये जाते हैं। मगर शायद हम अभी इतने सभ्य नही हैं कि जानवरों के बारे में सोचने में वक्त गवाएं। वैसे भी हमारी तेज़ रफ्तार होती ज़िन्दगी में इन फालतू बातों के लिए वक्त ही कहाँ है?
मगर इस सब में हम भूल जाते हैं कि जानवरों के साथ साथ हम अपनी ज़िन्दगी भी जोखिम में डाल रहे हैं। यकीन न आए तो राष्ट्रीय राजमार्गो पर इन जानवरों से टकराकर होने वाली मौत के आंकडे देख लो। मौत आने पर सिर्फ़ गीदड़ ही शहर कि तरफ़ नही भागता बल्कि इंसान भी जंगल होकर गुजरने वाला हाईवे पर जा पहुँचता है।

Monday, June 15, 2009

विश्व विजेता की हार


भारत भर में धोनी की टीम का मर्सिया पढ़ा जा रहा है। २०-२० विश्व कप में भारत की असमय विदाई क्या हुई मनो हर तरफ शोक ही शोक। आखिर क्रिकेट भारत में किसी धर्म से तो कम नहीं। मगर चलो अच्छा ही है। कम से कम दूसरे खेलों से जुड़े लोगो के लिए तो ये तसल्ली की ही बात है।कम से कम उनका कुछ भला नहीं हो रहा तो क्रिकेट का दिवाला तो निकला । हो सकता है बुरे वक़्त में किसी की नज़र उन पर भी पड़ ही जाए।
धोनी के धुरंधर विश्व विजेता का अपना खिताब बचाने विलायत गए थे मगर धराशाई हो गए। ऐसा गिरे कि फिर दोबारा उठने का मौक़ा ही नहीं मिला। हार बुरी बात नहीं। खेल में किसी एक को तो हारना ही है। मगर yah हर टीम कि नहीं अंहकार की हार है। और यह हार है एक अभिमानी कप्तान की। लाख क्रिकेट एक टीम खेल है, मगर हार का जिम्मेदार हमेशा कप्तान ही होता ही। खासकर डूबे जहाज़ की बदहाली के लिए कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेता। इस दुर्दशा के लिए हमेशा ही नेत्रत्व को कोसा जाता है।
इस हर के पीछे अंतर्कलह भी है। धोनी और बी सी सी आई लाख एकजुटता के दावे करते रहे हों मगर कहीं न कहीं दाल में काला ज़रूर था। लोग कहते हैं इज्ज़त पैसा और शोहरत हर आदमी नहीं संभाल पाता । सफलता अपने साथ कई बुराइयाँ लती है। इसमें अंहकार और अधिनायकवाद सब से बुरे हैं। धोनी को समझना होगा कि इन सब से कैसे दूर रहा जाये। इस हार के बाद की आलोचना शायद उन्हें ज़मीन पर ले ही आये।
धोनी एक बात और भूल गए लगते हैं। इस देश में सफल आदमी अगर भगवान के सामान है तो विफल किसी घ्रणित प्राणी से कम नहीं। उन्हें शायद मालूम न हो मगर अपने साथी तथा महानतम क्रिकेटरों में से एक सचिन से ही पूछ लें। भारतीय क्रिकेट का भगवान् कहे जाने वाले इस खिलाडी की विफलता को भी क्रिकेट प्रेमी कभी नहीं पचा पाए। बुरे समय में उन्हें भी कम अपमानित नहीं किया गया फिर धोनी को तो उन तक पहुँचने में बहुत वक़्त लगेगा। इतने पर भी सचिन महान इस लिए हैं की वो अपनी आलोचना खामोशी से सुनते हैं, गलती से सबक लेते हैं और जवाब में जुबां नहीं बल्ला चलाते हैं। धोनी यहाँ मात खा जाते हैं और सफलतम कप्तानों में से एक होने के बावजूद कहीं निछले पायदान पर खड़े दिखाई देते हैं।
फिर धोनी शायद इतिहास से भी सबक नहीं लेना चाहते। सौरव गांगुली और राहुल द्रविड़ का हश्र तो उन्होंने खुद ही देखा है। इस से पहले भी भारतीय क्रिकेट का इतिहास रहा है की सफल रहने तक ही कप्तान सर आँखों पर बैठाया जाता है। एक बार वो अपने चरमोत्कर्ष को छू कर नीचे आया नहीं के जिल्लत की हर राह से गुजरने को मजबूर किया जाता है। धोनी को अगर पता न हो तो ज़रा अजहरुद्दीन, कपिल देव, श्रीकांत, गांगुली, सचिन और रवि शास्त्री से ही पूछ लें। ये लोग सौभाग्य से अपने अनुभव बाँटने को अभी हमारे बीच मौजूद हैं।
चलो जाने दो। क्रिकेट में आकिर रखा ही क्या है। याद करो चक दे इंडिया फिल्म का वों जिसमे शाहरुख़ हॉकी के बारे में कहते हैं के ये छक्कों का खेल नहीं है। मगर २०-२० क्रिकेट तो छक्को का ही खेल है। धोनी भी छक्को के इस खेल के आवरण से बाहर आयें। एक आशियाँ उजड़ गया तो क्या ग़म है, तेरे आगे आसमान और भी हैं... अभी मर्दों वाली क्रिकेट बाकी है। तय्यारी करो और जूझ पडो।
मगर एक बात का ख्याल रहे। जो हार से सबक नहीं लेता कभी नहीं उबर पाता।जीत किसी एक की नहीं होती मगर हार हमेशा नेत्रत्व की ही होती है। विजेता बनना है तो पहले एकजुट होना पड़ेगा।

Sunday, June 14, 2009

एक रोती कराहती नदी का अफसाना


गंगा नदी से मात्र दस किलोमीटर दूर, राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या २४ पर ओद्योगिक नगरी के रूप में विकसित होता एक छोटा सा कस्बा है गजरौला। यहाँ के लोग अक्सर दावा करते हैं कि मुंबई के बाद शायद गजरौला ही है जो कभी नही सोता। आप रात को किसी भी समय यहाँ उतर जाइये, जनजीवन अपनी रफ्तार से ही दौड़ता हुआ मिलेगा।
गंगा के अलावा आस पास से दो तीन नदियाँ और भी गुज़रती हैं। अब नदिया भी क्या , यूँ कहिये कि दो तीन नाले भी गुज़रता हैं। वैसे जो हालात हैं उन्हें देखते हुए तो यही लगता है कि वो दिन दूर नही जब पवित्र गंगा मय्या के विषय में भी यही कहा जाएगा।
इन दो तीन नदियों में से एक छोटी सी बगद नदी भी है। एक ज़माने में ये भी काफी पूजनीय थी। लोग यहाँ भी स्नान कर लिया करते थे, मगर अब नही करते। हालाँकि कर सकते हैं। यहाँ का पानी गंगा से थोड़ा बहुत ही ज़्यादा ज़हरीला होगा। थोड़ा सा काला ज़रूर है मगर है अभी पानी ही। हो भी क्यों ना? अब नदी ही तो है, इन्सान तो नही जो आँख का पानी भी मर जाए, सो बेचारी आंसू बहाती रहती है। अब यही आंसू उस में आक़र गिर रहे ओद्योगिक अपशिष्ट के साथ मिलकर आस पास कि फसल को भी जला देते हैं तो इसमे बेचारी बगद का क्या दोष? उसे तो हर हाल में अपनी बेबसी पर आंसू बहाना ही है।
हम हिन्दुस्तानी पूरी दुनिया पर छा गए हैं। विकास कि रफ्तार में पूरी दुनिया को पीछे छोडे जाते है। मगर इस के साथ साथ अपनी जड़ो से भी हम कट गए लगते हैं। कुछ डूब रहा है तो डूबने दो, कुछ मिट रहा है तो मिटने दो, हमें क्या? अरस्तु ने भी क्या कुछ ग़लत कहा था, मध्यम वर्ग के बारे में कि यह दुनिया कि सबसे ज़्यादा भावहीन जमात होती है। मकियावेली ने भी कुछ कुछ ऐसे ही विचार अपने दर्शन में पेश किए। कुल मिलकर हमारे देश में मध्यम वर्ग कि भरमार है। ग़रीब के पास साँस लेने का अधिकार नही और इस वर्ग के पास साँस लेने की फुर्सत नही। फिर बगद जैसी दम तोड़ती नदी के बारे कोई क्या सोचे। कुछ दिन बाद यह काला नाला अपनी मौत आप मर जाएगा।
चलो अच्छा ही होगा। गजरौला से लेकर बदायूं तक के किसानो कि फसल, पशु और ख़ुद उनकी ज़िन्दगी तो दम नही तोडेंगे। वरना तो आज बगद इन दो जिलो ( ज्योति बा फुले नगर और बदायूं) के लोगो के लिए मौत का ही नाम है। इस रोती कराहती बुढिया का बोझ इसके बच्चों से नही उठाया जाता। ये अब मर ही जाए तो बेहतर।
मगर इस सब के बाद याद रखना अगली बारी उस बुढिया कि है जिसे हम गंगा मय्या के नाम से जानते हैं।

Saturday, June 13, 2009

पानीपत का तीसरा , चौथा और पांचवा युद्घ : अर्थार्थ भाजपा की कहानी


भाजपा में घमासान मची है। हारी हुई सेना के सेनापति एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे हैं। दल साफ़ तौर पर दोगुटों में बटा नज़र आ रहा है। एक दल जड़ो की और वापसी का नारा दे रहा है तो दूसरे को विचारधारा में ही खोटनज़र आ रहा है। कुछ सेनानी मात्र संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संग के सर हार का ठीकरा फोड़ रहे हैं तो कुछ तोसेनापति में ही कमजोरी नज़र आ रही है। बहरहाल दल अपनी एतिहासिक हाल के कारण तलाशते तलाशतेइतिहास दोहरा रहा है । ऐसा ही रहा तो वो दिन दूर नही की इस सेना के सेनापति अपनी सेना को एतिहासिकबनाते बनाते इतिहास के गर्त में धकेल ही देंगे। राजनीती में हार और जीत लगी ही रहती हैं मगर भाजपा के लिए इस बार मामला अलग ही था। दल ने इस बारन सिर्फ़ आम चुनाव में पूरी ताक़त झोंक दी थी बल्कि अगले चुनाव का भी बिगुल बजा दिया था। मगर जीत नमिलनी थी और न मिली। १००८ महागुरु, बाबा श्री लालू प्रसाद यादव जी की भविष्यवाणी सत्य साबित हुई। उन्होंने तो पहले ही कह दिया था की आडवानी जी की कुंडली में प्रधानमंत्री का योग ही नही है, मगर किसी नेउनकी बात नही मानी। ख़ुद मुरली मनोहर जोशी जी, जो अपने ज़माने में ज्योतिष शिक्षा के सबसे बड़े हिमायतीथे उनकी बात झुठलाते रहे। मगर न ज्योतिष झूठा था और न बाबा। हाँ इतना ज़रूर है की दूसरो का भविष्य बांचतेबांचते बाबा जी को ख़ुद अपनी सुध न रही और डूब गए। आम चुनाव भाजपा के लिए पानीपत के दूसरा युद्घ साबित हुए। पानीपत के बाद मराठ सती का जिस तरह क्षरण हुआ था उसी रास्ते पर भाजपा भी चल निकली है। आसार तो चुनाव में ही नज़र आ गए थे। दरअसल इसदल में सेना कम और सेनापति ज़्यादा थे, अंहकार में डूबा एक एक सेनापति क्षत्रु को नही अपने ही साथी की लुट्या डुबाने में व्यस्त था।लोह पुरूष के लोहे के कवच को उनके नायब ही चुराकर बेचने की जुगत में थे। अब प्यार तो होना हो था...माफ़ करना बंटाधार तो होना... । भाजपा का डूबना अब तै है क्योंकि अब न यहाँ विचार हैं और न विचार धारा। विचार बूढे और दकियानूसी होचुके हैं और विचारधारा आदिमयुगीन, विद्वंसक, और विनाशक। भारत जैसे उन्नतिशील, सहनशील औरविचारशील देश में इस सब का अब कुछ काम नही। भाजपा के सामने दो ही रास्ते हैं। पहला की वह अपना चोल हीनही आत्मा भी बदले। विनाश की नही विकास की बात करे।और सिर्फ़ बात ही नही करे, जिन राज्यों में सत्ता में हैवहां अमल में भी लाये। दूसरा रास्ता है की वो अपनी जड़ो की तरफ़ लौट जाए और इतिहास बन जाए। आखिर इतिहास ही तो ख़ुद को दोहराता है।

Tuesday, June 9, 2009

लालू जी को गुस्सा क्यों आता है ?


लालू जी नाराज़ हैं पर अपनी नाराजगी छिपा नही पाते। दिल में एक टीस सी है। लाख दबाना चाहते हैं मगर दर्द है की जुबां पर ही जाता है। अब जुम्मा जुम्मा चार दिन ही की तो बात है। ठाट से सत्ता के गलियारों में दनदनाते फिरते थे। उनकी रेल थी की बगैर सिग्नल दस जनपथ से लेकर रेस कोर्स , नार्थ एवेन्यू से साउथ एवेन्यू, यहाँ तक कि पटना से बडौदा हाउस तक क्या मजाल जो कोई रोक ले।
लोग प्यार से मैनेजमेंट गुरु तक कहने लगे थे। गुरुगिरी का खुमार इतना चढा कि रेल दफ्तरों तक के बाहर सुबह सुबह पहुँच जाते थे छड़ी लेकर। अब ये कहाँ कि तुक हुई जी? सरकारी बाबू हैं दस से पहले भी कैसे सकते हैं दफ्तर? ट्रेन का टाइम सीधा हुआ नही इन साठ साठ साल पुराने बिगडे नवाबों को कैसे सीधा कर सकते थे। भाई बनिए को मुनाफे से आगे सोचना ही नही चाहिए। जनता है उनकी तनख्वाह देने के लिए।
इस से भी दिल नही भर रहा था के लगे सब को डांटने डपटने। कभी किसी नेता को डपट दिया, कभी किसी कारिंदे को। अब पत्रकार आपके रेल मंत्रालय के कर्मचारी तो थे नही। सब को डांटने डपटने के फेर में , जाने अनजाने हर तरफ़ दुश्मन खड़े कर लिए। अब क्या पता कांग्रेस में कौन कौन जला भुना बैठा था ?
अब सत्ता कि बंदरबांट में आपकी हिस्सेदारी नकार दी गई, या कहिये कि जनता ने आपको पैदल करा दिया तो क्या हो सकता है। बुरे वक्त में ऊंट पर बैठे आदमी को कुत्ता काट कर भाग जाता है , आप तो अब अपने प्रिय वाहन भैसे पर भी नही हैं। अब संसद में आप कितना डांट डपट दीजिये आपकी हैसियत कोई किसी विदूषक से ज़्यादा मानने को तैयार शायद ही हो। आप संसद में बोलते हो तो सारा सदन हँसता है। आप सदन में कह रहे थे कि अपने स्वाभिमान से समझौता नही करूँगा, तब भी सदन हंस ही रहा था। मगर बातों में तो दम था। कोई माने मै तो मानूंगा।
मुझे तो आप से काफ़ी सहानुभूति है मगर मेरी हैसियत ही क्या है। एक अदना सा पत्रकार सलाह से ज़्यादा कुछ दे ही नही सकता। संपादक किसी लायक बन्ने ही नही देता और अच्छे वक्त में आप जैसे लोग कभी मुड़कर देखना पसंद नही करते। अब तो हम और आप एक जैसी ही हालत में हैं और साथ बैठ कर आंसू बहाने से ज्यदा के रहे भी नही।
वैसे समय बड़ा बलवान है। राजनीति तो वैसे भी सांप सीढ़ी, या कहिये कि झूले के समान है। आज निचे हैं तो कल ऊपर भी आएंगे। अब वक्त ख़राब है तो होमवर्क ही कर लो और आने वाले कल कि तय्यारी करो। मगर इतना याद रखना जो तम्हारे साथ हो रहा है उसे दोहराना मत। वरना दिन के बाद फिर रात है।