Tuesday, October 6, 2009

कहाँ है बया का घोंसला ?


शायद आपको याद हो कि बचपन में एक गौरय्या नाम की चिडिया आपके घर आँगन में फुदकती फिरती थी? आपको भी याद नही आ रहा? कोई बात नही। बया का घोंसला तो याद होगा? जी हाँ वही। खूबसूरत सा, ऊंचे ऊंचे पेड़ों पर लटका रहने वाला। ज़रा घर से बाहर निकल कर देखिये। कहीं मिल जाए शायद। नही दिख रहा? चलिए जंगल में देख कर आते हैं। अरे ये क्या ? ये तो यहाँ भी नही है।
और कोशिश करना बेकार है। क्योंकि अब शायद ही ये आपको कहीं नज़र आए। गिद्ध की तरह पक्षियों की यह प्रजातियाँ या तो विलुप्त हो चुकी हैं या फिर अपनी आखिरी साँस कहीं गिन रही हैं।
गौरय्या को तो घर आंगन की ही चिडिया कहा जाता था। एक समय था जब गौरय्या की चहचहाहट दिन निकलने के साथ की कानो में रस घोला करती थी। ये नन्ही फुदकती चिडिया कब गायब हो गई किसी को पता ही नही चला। अब ये सिर्फ़ ख्वाजा अहमद अब्बास की कहानी अबाबील (The sparrows) में ही मिला करेगी।
यही हाल बया का भी है। इसकी घर बनने की कला के दीवाने दुनिया में हजारों मिल जाएँगे मगर बया ख़ुद हजारों की तादात से भी कम पर सिमट गई है। इसके खूबसूरत घोंसले ना तो ऊंची खजूरों के पेड़ पर लटके नज़र आते हैं और ना ही कीकर पर। ये पिद्दी भर की चिडिया शायद इतनी छोटी हो गई है के अब नज़र ही नही आती।
दरअसल ये भी हमारे तथाकथित विकास की भेंट चढ़ गई हैं। हम तेज़ी से विकास कर रहे हैं। हमारे उद्योगों की चिमनियाँ अब पहले से कम धुआं उगलती हैं मगर इनकी तादात इतनी ज़्यादा हो गई है कि पशु पक्षी साँस लेने भर कि ओक्सिजन को तरस गए हैं। हमने जल को इतना दूषित कर दिया है कि ये बेजुबान अब पानी को भी तरस जाते हैं। विकास कि हमारी अंधी दौड़ अभी कितनी और प्रजातियों को निगल जाती है, बस देखते रहिये।

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