Thursday, September 10, 2009

दिल्ली में दिल नही लगता...


उस रोज़ जाने मेरा वक्त ही ख़राब आया था या फिर नियति को यही मंज़ूर था, कि मैं दिल्ली चला गया। दिल्ली यूँ तो मुझ से कभी दूर नही रही मगर ना जाने क्यों दिल्ली जाकर हमेशा ही मेरा दिल उचाट हो जाता है। इस में दिल्ली का कोई दोष नही। दोष तो मेरी आदतों का है जो मेरी आराम तलबी और मेरे निकम्मेपन ने बिगाड़ दी हैं।
दिल्ली कि रफ़्तार अब मुंबई को मात देती लगती है। यहाँ के लोग हालाँकि अभी मुंबई जितना स्वकेंद्रित, स्वार्थी और अपने आप में और अपने लिए जीने वाले नही हुए हैं। मगर फिर भी जाने क्यों लगता है कि हमारी दिल्ली अब दिल्ली नही रही और ना ही दिल्लीवासियों का पहले जैसा बड़ा दिल। धूल, धूप और उलझन के सिवा जो एक और चीज़ मुझे यहाँ कचोटती है वो है दिल्ली में पीने का पानी। अब क्या बताऊँ उस रोज़ कि भयंकर गर्मी ने मुझे बेहाल कर दिया। मै ग्यारह लीटर पानी पी गया मगर इस सब में मेरी जेब से खाने के पैसे भी ख़त्म हो गए। दिल्ली मेरा गाँव नही है जहाँ भले ही पनघट या तालाब ख़त्म हो गए हों पर पानी पीने के दाम नही चुकाने होते।
मेरे पास पैसे थे मैंने दाम चुका दिया । इतना ही नही जब पानी हाथ नही लगा तो कोल्ड ड्रिंक भी पी लिया । मगर दिल्ली में ऐसे कितने लोग होंगे जो रोजाना डेढ़ सौ रूपये प्रतिदिन का पानी पीने का सामर्थ्य रखते होंगे? ज़ाहिर है दिल्ली कि आधी से ज़्यादा आबादी मिनरल वाटर कि एक बोतल का दाम चुकाने की हालत में नही है। दिल्ली सिर्फ़ आलिशान अट्टालिकाओं में वास करने वाले मुट्ठी भर लोगो की नही है। यह लोगो की भी नही है जो फुटपाथ पर ज़िन्दगी गुज़र देते हैं। दिल्ली सिर्फ़ झुग्गी वालो की भी नही है।यह उन लोगों का शहर भी नही है जो रोजाना लाखों की तादात में यहाँ काम की तलाश में आते हैं और शाम होते होते लौट जाते हैं। दिल्ली इन सब की है , बल्कि हम सब की है।
मगर जब दिल्ली की आधी से ज़्यादा आबादी का दर्द समझने की कोशिश करता हूँ तो लगता है कि दिल्ली मेरी नही हो सकती। मुझे काम चाहिए और दिल्ली में वो है भी मगर इन हालत में गुज़र कैसे होगा नही जानता। मजबूर दिल्ली जाने को उकसाती है तो दिल यहाँ कि मुसीबतों का उलाहना देता है। हौंसला इन सब से लड़ने की बात करता है मगर दिमाग कहता है, तुम कोई क्रांतिकारी हो क्या? जब नही तो बस जैसे कट रही है गुजार लो। अपने दर्द क्या कम हैं जो नई नई आफतों से लड़ने के ख्वाब देखते हो। मगर फिर भी दिल्ली तो दिल्ली ही है।

4 comments:

अनिल कान्त said...

vicharneey lekh....

Admin said...

आपकी मुश्किलों पर मन भर आया पर कुछ भी हो इसमें दिल्ली का दोष नहीं!
एक बार खुले दिल से कोशिश तो कीजिये जनाब! इंशा अल्लाह दिल्ली से बड़कर जन्नत भी नहीं

Udan Tashtari said...

दिल्ली तो दिल्ली ही है-बस यही सूत्र थामे रहें..और हिम्मत रखें.

संजय तिवारी said...

लेखनी प्रभावित करती है.