Tuesday, September 8, 2009

बादल हुए बेईमान सजनी...



बरसात के मायने ही बदल गए लगते हैं। अब ना वो पहले जैसी झमाझम बारिश होती है और ना ही पहले जैसे कजरारे बादल आसमान पर नज़र आते हैं। याद आते हैं वो दिन जब पानी में कागज़ की कश्तियाँ मन की हिलोरों सी डोलती हुई दूर निकल जाती थीं। जगह जगह भरे हुए पानी में घर वालों की सख्ती के बावजूद धमाचौकडी वाला वो बचपन अब वापस नही आने वाला। और जो एक चीज़ वापस आती नही लगती है बचपन वाली झमाझम बरसात।

लोग कह रहे हैं बादल बेईमान हो गए हैं। कहीं फट कर बरसाने को तैयार हैं तो कहीं मुह छिपा कर निकल जाते हैं। हालाँकि बरसात की स्थिति में सुधार का दावा मौसम और कृषि विभाग कर रहा है और बारिश भयंकर सूखे की आशंकाओं को भी खारिज करती दिख रही मगर इस साल के हाल हमारे लए किसी चेतावनी से कम नही।

ऐसा नही है के बारिश बेईमान ही गई। दरअसल पिछले कुछ सालों में मौसम का चक्र ही बिगड़ गया है। रेगिस्तान पर बादल बरसने की खबरें आती हैं तो हरे मैदानों पर झुलसाने वाली गर्मी पड़ती है। गर्मी अब जल्दी आती है और देर से जाती है। सर्दियाँ एक बार आ जाती हैं तो लगते है वापस जाएंगी ही नही। यही हाल बरसात का भी है। बरसात बेईमान नही हुई है बल्कि थोड़ा देर से आती है। फिर बरसात ही क्यों ? पूरा मौसम चक्र ही दो महीना लेट हो गया है।
इस सब का जिम्मेदार कौन है? ज़ाहिर है हम ही लोग। मौसम चक्र बिगाड़ने में जितना हाथ ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति मान्य श्री मानव जी का है किसी और का नही। एक क़व्वाली के बोल याद आते हैं जिस में कव्वाल ईश्वर की तरफ़ से कह रहा है " मै बना कर तुझे ख़ुद परेशान हूँ... तुझ को दुनिया में लाना ग़ज़ब हो गया.." हालाँकि शायर ने ये सब किसी औरत के लिए कहा है मगर प्रकृति से छेड़छाड़ की बात आती है तो ये शब्द पूरी मानवजाति पर ही लागू होते हैं। हम ने पहाडो को तोड़ कर रास्ते बना दिए। आसमान पहाड़ कर चाँद पर कब्जा कर लिया। सागरों का सीना चीर कर वहां भी विजय पा ली। मगर अपनी जीत के गुमान में हम भूल गए कि हम इस ज़ंग में कुछ हासिल कर रहे हैं तो कुछ खो भी रहे हैं। इस तथा कथित माविया विकास का रास्ता वन वे ट्रैफिक कि तरह ही है। यहाँ वापसी कि कोई गुंजाइश नही रही। ईश्वर ने हमें बनाया था तो उस का दिल भी बहुत बड़ा है। प्रकृति ने भी जहाँ तक हुआ हमारी कुचेष्ठाओ को काफ़ी हद तक बर्दाश्त किया। मगर अब तो हद ही हो गई है।
बात सिर्फ़ तथाकथित मानवीय विकास की ही नही रह गई है। इस अंधी दौड़ में हम काफी आगे निकल गए हैं। मानव का लगातर विजय ने उसे दम्भ से चूर कर दिया है। अपने मग़रूर मिजाज के चलते आदमी प्रकृति के चेतावनिओं को लगातार अनदेखा करता चला आ रहा है। मगर ये ज़्यादा दिन चलने वाला नही है।
हम लगातार प्रकृति का इम्तेहान ले रहे हैं और दंभ में चूर उसे लगातर कुचलने पर आमादा हैं। जीत के नशे में हम भूल गए हैं कि कुदरत भी हमारा इम्तेहान ले सकती है।ओंर जिस दिन ऐसा होगा उस दिन हमारे पास पछताने का भी वक्त नही होगा।

2 comments:

Mishra Pankaj said...

सचमुच बेईमान हो गये है बादल भाई

Udan Tashtari said...

जीत के नशे में हम भूल गए हैं कि कुदरत भी हमारा इम्तेहान ले सकती है-सत्य वचन!!